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________________ पत्र ५३९] विविध पत्र आदि संग्रह-२८वाँ वर्ष कुछ कुछ विशेष व्यक्त ( प्रगट ) होती है; उससे विशेष क्षयोपशमसे स्पर्शन और रसना इन्द्रियकी लन्धि उत्पन्न होती है, इस प्रकार विशेषतासे उत्तरोत्तर स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दको ग्रहण करने योग्य पंचेन्द्रियसंबंधी क्षयोपशम होता है । फिर भी क्षयोपशम दशामें गुणकी सम-विषमता होनेसे, सर्वांगसे वह पंचेन्द्रियसंबंधी ज्ञान-दर्शन नहीं होता, क्योंक शक्तिका वैसा तारतम्य (सत्त्व) नहीं है कि वह पाँचों विषय सर्वांगसे ग्रहण करे । यद्यपि अवधि आदि ज्ञानमें वैसा होता है, परन्तु यहाँ तो सामान्य क्षयोपशम और वह भी इन्द्रिय सापेक्ष क्षयोपशमकी बात है । अमुक नियत प्रदेशमें ही उस इन्द्रियलब्धिका परिणाम होता है, उसका हेतु क्षयोपशम तथा प्राप्तभूत योनिका संबंध है, जिससे नियत प्रदेशमें ( अमुक मर्यादा-भागमें ) जीवको अमुक अमुक विषयका ही ग्रहण होना संभव है। तीसरा प्रश्नः-जब शरीरके अमुक भागमें पीड़ा होती है तो जीव वहीं संलग्न हो जाता है, इससे जिस भागमें पीड़ा है, उस भागकी पीड़ा सहन करनेके कारण क्या समस्त प्रदेश वहीं खिंच आते होंगे! जगत्में भी कहावत है कि जहाँ पीड़ा हो जीव वहीं संलग्न रहता है। उत्तरः-उस वेदनाके सहन करनेमें बहुतसे प्रसंगोंपर विशेष उपयोग रुकता है, और दूसरे प्रदेशका उस ओर बहुतसे प्रसंगोंपर स्वाभाविक आकर्षण भी होता है । किसी अवसरपर वेदनाका बाहुल्य हो तो समस्त प्रदेश मूर्छागत स्थितिको प्राप्त करते हैं और किसी अवसरपर वेदना अथवा भयकी बहुलतासे सर्व प्रदेश अर्थात् आत्माके दशम द्वार आदिकी एक स्थानमें स्थिति होती है । यह होनेका हेतु भी यही है कि अन्याबाध नामक जीव-स्वभावके तथाप्रकारसे परिणामी न होनेके कारण, वीर्यातरायके क्षयोपशमकी वैसी सम-विषमता होती है । इस प्रकारके प्रश्न बहुतसे मुमुक्षु जीवोंको विचारकी शुद्धिके लिये करने चाहिये, और वैसे प्रश्नोंका समाधान बतानेकी चित्तमें कचित् सहज इच्छा भी रहती है; परन्तु लिखनेमें विशेष उपयोगका रुक सकना बहुत मुश्किलसे होता है। ५३९ ववाणीआ, श्रावण वदी १४ सोम. १९५१ प्रथम पदमें ऐसा कहा है कि 'हे मुमुक्षु ! एक आत्माको जानते हुए तू समस्त लोकालोकको जानेगा, और सब कुछ जाननेका फल भी एक आत्म-प्राप्ति ही है । इसलिये आत्मासे भिन्न ऐसे दूसरे भावोंके जाननेकी बारंबारकी इच्छासे तू निवृत्त हो और एक निजस्वरूपमें दृष्टि दे; जिस दृष्टिसे समस्त सृष्टि ज्ञेयरूपसे तुझे अपनेमें दृष्टिगोचर होगी। तस्वस्वरूप सतशास्त्रमें कहे हुए मार्गका भी यह तत्त्व है, ऐसा तत्त्वज्ञानियोंने कहा है, किन्तु उपयोगपूर्वक उसे चित्तमें उतारना कठिन है । यह मार्ग जुदा है, और उसका स्वरूप भी जुदा है; मात्र 'कथन-ज्ञानी' जैसा कहते हैं वह वैसा नहीं, इसलिये जगह जगह जाकर क्या पूछता है क्योंकि उस अपूर्वभावकों अर्थ जंगह जगहसे प्राप्त नहीं हो सकता।' .: दूसरे पदका संक्षिप्त अर्थ:-हे मुमुक्षु ! यम, नियम आदि जो साधन शास्त्रोंमें कहे हैं, वे ऊपरोक अर्थसे निष्फल ठहरेंगे, यह बात भी नहीं है। क्योंकि वे भी किसी कारणके लिये ही कहे हैं। यह कारण इस प्रकार है:--बिससे आत्मज्ञान रह सके ऐसी पात्रता प्राप्त होनेके लिये, और जिससे
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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