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________________ Me. .. श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र १३८ . ....५३८ ववाणीश्रा, श्रावण वदी १२ शनि. १९५१ गत शनिवारको लिखा हुआ पत्र मिला है। उस पत्रमें मुख्यतया तीन प्रश्न लिखे हैं । उनको उत्तर निम्नरूपसे है: .. पहला प्रश्नः–एक मनुष्य-प्राणी दिनके समय आत्माके गुणोंद्वारा अमुक मर्यादातक देख सकता है, और रात्रिके समय अंधेरैमें कुछ भी नहीं देख सकता । फिर दूसरे दिन इसी तरह देखता है, और रात्रिमें कुछ भी नहीं देखता। इस कारण इस तरह एक दिन रातमें, अविच्छिन्नरूपसे प्रवर्तमान आत्माके गुणके ऊपर, अध्यवसायके बदले बिना ही, क्या नहीं देखनेका आवरण आ जाता होगा ! अथवा देखना यह आत्माका गुण ही नहीं, और सूरजसे ही सब कुछ दिखाई देता है, इसलिये देखना सूरजका गुण होनेके कारण उसकी अनुपस्थितिमें कुछ भी दिखाई नहीं देता है और फिर इसी तरह सुननेके दृष्टांतमें कानको यथास्थान न रखनेसे कुछ भी सुनाई नहीं देता, तो फिर आत्माका गुण कैसे मुला दिया जाता है ! उत्तरः-ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मका अमुक क्षयोपशम होनेसे इन्द्रियलब्धि उत्पन्न होती है । वह इन्द्रियलन्धि सामान्यरूपसे पाँच प्रकारकी कही जा सकती है । स्पर्शन इन्द्रियसे श्रवण इद्रियतक सामान्यरूपसे मनुष्यको पाँच इन्द्रियोंकी लब्धिका क्षयोपशम होता है; उस.क्षयोपशमकी शक्तिकी जहाँतक अमुक व्यापकता हो वहींतक मनुष्य जान देख सकता है। देखना यह चक्षु इन्द्रियका गुण है, परन्तु अंधकारसे अथवा वस्तुके अमुक दूपिर होनेसे उसे पदार्थ देखनेमें नहीं आ सकता, क्योंकि चक्षु इद्रियकी क्षयोपशम-लब्धि उस हदतक जाकर रुक जाती है। अर्थात् सामान्यरूपसे क्षयोपशमकी इतनी ही शक्ति है। दिनमें भी यदि विशेष अंधकार हो, अथवा कोई वस्तु बहुत अंधकारमें रक्खी हुई हो, अथवा अमुक सीमासे दूर हो तो वह चक्षुसे दिखाई नहीं दे सकती । तथा दूसरी इन्द्रियोंकी भी लब्धिसंबंधी क्षयोपशम शक्तितक ही उनके विषय ज्ञान-दर्शनकी प्रवृति है। अमुक व्याघात होनेतक ही वे स्पर्श कर सकती हैं; सूंघ सकती हैं, स्वाद पहिचान सकती हैं, या सुन सकती हैं। दूसरा प्रश्नः-आत्माके असंख्य प्रदेशोंके समस्त शरीरमें व्यापक होनेपर भी, आँखके बीचके भागकी पुतलीसे ही देखा जा सकता है। इसी तरह समस्त शरीरमें असंख्यात प्रदेवोंके व्यापक होनेपर भी एक छोटेसे कानसे ही सुना जा सकता है। अमुक स्थानसे ही गंधकी परीक्षा होती है। अमुक जगहसे ही रसकी परीक्षा होती है । उदाहरणके लिये मिश्रीका स्वाद हाथ-पाँव नहीं जानते, जीभ ही जानती है। आत्माके समस्त शरीरमें समानरूपसे व्यापक होनेपर भी अमुक भागसे ही ज्ञान.होता है, इसका क्या कारण होगा! ___उत्तरः-जीवको ज्ञान दर्शन यदि क्षायिक भावसे प्रगट हुए हों तो सर्व प्रदेशसे उसे तथाप्रकारका निरावरणपना होनेसे एक समयमें सर्व प्रकारसे सर्व भावका ज्ञायकभाव होना संभव है, परन्तु जहाँ क्षयोपशम भावसे ज्ञान दर्शन रहते हैं वहाँ भिन्न भिन्न प्रकारसे अमुक मर्यादामें ज्ञायंकभाव होता है। जिस" जीवको अत्यंत अल्प बान-दर्शनकी. क्षयोपशम शक्ति रहती है। उस जीवको अक्षरके अनंतवें भाग जितना ज्ञायकभाव होता है। उससे विशेष क्षयोपशमसे स्पर्शन इन्द्रियको लब्धि
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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