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________________ ४५८ '. भीमद् राजचन्द्र [पत्र ५२७ प्रश्नोंपर तुम्हें, लहेराभाई तथा श्रीइंगरको. विशेष विचार करना चाहिये । अन्य दर्शनमें जिस प्रकारसे केवलज्ञान आदिका. स्वरूप कहा है और जैनदर्शनमें उस विषयका जो स्वरूप कहा है, उन दोनोंमें बहुत कुछ मुख्य भेद देखनेमें आता है, उसका सबको विचार होकर समाधान हो जाय तो वह आत्माके कल्याणका अंगभूत है, इसलिये इस विषयपर अधिक विचार किया जाय तो अच्छा है। २. 'अस्ति' इस पदसे लेकर सब भाव आत्मार्थके लिये ही विचार करने योग्य हैं। उसमें जो निज स्वरूपकी प्राप्तिका हेतु है, उसका ही मुख्यतया विचार करना योग्य है । और उस विचारके लिये अन्य पदार्थक विचारकी भी अपेक्षा रहती है, उसके लिये उसका भी विचार करना उचित है। परस्पर दर्शनोंमें बड़ा भेद देखनेमें आता है । उन सबकी तुलना करके अमुक दर्शन सच्चा है, यह निश्चय सब मुमुक्षुओंको होना कठिन है, क्योंकि उसकी तुलना करनेकी क्षयोपशमशक्ति किसी किसी जीवको ही होती है। फिर एक दर्शन सब अंशोंमें सत्य है और दूसरा दर्शन सब अंशोंमें असत्य है, यह बात यदि विचारसे सिद्ध हो जाय तो दूसरे दर्शनोंके प्रवर्तककी दशा आदि विचारने योग्य हैं। क्योंकि जिसका वैराग्य उपशम बलवान है, उसने सर्वथा असत्यका ही निरूपण क्यों किया होगा? इत्यादि विचार करना योग्य है । किन्तु सब जीवोंको यह विचार होना कठिन है; और वह विचार कार्यकारी भी है-करने योग्य है परन्तु वह किसी माहात्म्यवानको ही हो सकता है । फिर बाकी जो मोक्षके इच्छुक जीव हैं, उन्हें उस संबंधमें क्या करना चाहिये, यह भी विचार करना उचित है। सब प्रकारके सर्वांग समाधानके हुए बिना सब कर्मोंसे मुक्त होना असंभव है, यह विचार हमारे चित्तमें रहा करता है, और सब प्रकारके समाधान होनेके लिये यदि अनंतकाल पुरुषार्थ करना पड़ता हो तो प्रायः करके कोई भी जीव मुक्त न हो सके । इससे ऐसा मालूम होता है कि अल्पकालमें ही उस सब प्रकारके समाधानका उपाय हो सकता है । इससे मुमुक्षु जीवको कोई निराशाका कारण भी नहीं है। ३. श्रावणसुदी ५-६ के बाद यहाँसे निवृत्त होना बने, ऐसा मालूम होता है । जहाँ क्षेत्रस्पर्शना होगी वहीं स्थिति होगी। जैन, सांख्य, योग, नैयायिक, बौद्ध. वेदांत, आत्मा नित्य. अनित्य. + परिणामी. + अपरिणामी. साक्षी. साक्षी-कर्ता. , + + + + + + + ,
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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