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________________ पत्र ५२४, ५२५, ५२६] विविध पक्राविसंग्रह-२८वाँ वर्ष इच्छा करते हुए अविनाशी परिणाम कहा है, उस परिणामसे। प्रवृत्ति करते हुए भी अनंतानुबंधीका होना संभव है । संक्षेपमें अनंतानुबंधी कषायकी व्याख्या इस तरह मालूम होती है। .. (२) 'जो पुत्र आदि वस्तुएँ लोक-संहासे इच्छा करने योग्य मानी जाती हैं, उन वस्तुओंको दुःखदायक और असारभूत मानकर-प्राप्त होनेके बाद नाश हो जानेसे वे इच्छा करने योग्य नहीं लगती थीं, वैसे पदार्थोकी हालमें इच्छा उत्पन्न होती है, और उससे अनित्य भाव जैसे बलवान हो वैसा करनेकी अभिलाषा उद्भूत होती है'-इत्यादि जो उदाहरणसहित लिखा; उसे बाँचा है। जिस पुरुषकी ज्ञान-दशा स्थिर रहने योग्य है, ऐसे ज्ञानी-पुरुषको भी यदि संसार-समागमका उदय हो तो जागृतरूपसे ही प्रवृत्ति करना योग्य है, ऐसा वीतरागने जो कहा है, वह अन्यथा नहीं है; और हम सब जागृत भावसे प्रवृत्ति करनेमें कुछ शिथिलता. रक्खें तो उस संसार-समागमसे बाधा होनेमें देर न लगे—यह उपदेश इन वचनोंद्वारा आत्मामें परिणमन करना योग्य है, इसमें संशय करना उचित नहीं । प्रसंगकी सर्वथा निवृत्ति यदि अशक्य होती हो, तो प्रसंगको न्यून करना योग्य है, और क्रमपूर्वक सर्वथा निवृत्तिरूप परिणाम लाना ही उचित है, यह मुमुक्षु पुरुषका भूमिका-धर्म है। सत्संग-सत्शासके संयोगसे उस धर्मका विशेषरूपसे आराधन संभव है। ५२४ बम्बई, आषाढ़ सुदी १३ गुरु. १९५१ श्रीमद् वीतरागाय नमः (१) केवलज्ञानका स्वरूप किस प्रकार घटता है ! (२) इस भरतक्षेत्रमें इस कालमें उसका होना संभव हो सकता है या नहीं ! (३) केवलज्ञानीमें किस प्रकारकी आत्म-स्थिति होती है ! (४) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और केवलज्ञानके स्वरूपमें किस प्रकारसे भेद हो सकता है ! (५) सम्यग्दर्शनयुक्त पुरुषकी आत्मस्थिति कैसी होती है ! उपर कहे हुए वचनोंपर यथाशक्ति विशेष विचार करना योग्य है। इसके संबंधमें पत्रद्वारा तुमसे जो लिखा जा सके, सो लिखना । हालमें यहाँ उपाधिकी कुछ न्यूनता है। ५२५ बम्बई, आषाढ वदी २ रवि. १९५१ श्रीमद् वीतरागको नमस्कार. सत्समागम और सत्शास्त्रके लाभको चाहनेवाले मुमुक्षुओंको आरंभ परिग्रह और रसास्वाद आदिका प्रतिबंध न्यून करना योग्य है, ऐसा श्रीजिन आदि महान् पुरुषोंने कहा है । जबतक अपना दोष विचारकर उसे कम करनेके लिये प्रवृत्तिशील न हुआ जाय, तबतक सत्पुरुषके कहे हुए मार्गका फल प्राप्त करना कठिन है । इस बातपर मुमुक्षु जीवको विशेष विचार करना चाहिये । ५२६ बम्बई, आषाढ वदी ७ रवि. १९५१ ॐ नमो वीतरागाय १. इस भरतक्षेत्रमें इस कालमें केवलज्ञान संभव है या नहीं ! इत्यादि जो प्रश्न लिखे थे, उनके उत्तरमें तुम्हारे तथा श्री लहेराभाईके विचार, प्राप्त हुए पत्रसे विशेषरूपसे मालूम हुए हैं। इन ५८
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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