SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 539
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५१ पत्र ५११, ५१२ ५१३] विविध पत्र आदि संग्रह-२८वा वर्ष ४५१ वाणी अनेक तरहसे बलवान बनाती है, इतना उस वाणीका उपकार बहुतसे जीवोंके प्रति होना संभव तुम्हारे आजके पत्रमें अंतमें श्रीडूंगरने जो साखी लिखाई है-'व्यवहारनी जाळ पांदडे पांदडे परजळी-यह जिसमें प्रथम पद है, वह यथार्थ है । यह साखी उपाधिसे उदासीन चित्तको धीरजका कारण हो सकती है। ५११ बम्बई, वैशाख वदी १४ गुरु. १९५१ शरण ( आश्रय ) और निश्चय कर्तव्य है । अधैर्यसे खेद नहीं करना चाहिये । चित्तमें देह आदि भयका विक्षेप भी करना योग्य नहीं । अस्थिर परिणामका उपशम करना योग्य है । ___ ५१२ बम्बई, ज्येष्ठ सुदी २ रवि. १९५१ अपारकी तरह संसार-समुद्रसे तारनेवाले ऐसे सद्धर्मका निष्कारण करुणासे जिसने उपदेश किया है, उस ज्ञानी-पुरुषके उपकारको नमस्कार हो ! नमस्कार हो ! मुझे प्रायः करके निवृत्ति मिल सकती है, परन्तु यह क्षेत्र स्वभावसे विशेष प्रवृत्तियुक्त है; इस कारण निवृत्ति क्षेत्रमें जैसे सत्समागमसे आत्म-परिणामका उत्कर्ष होता है, वैसा प्रायः करके विशेष प्रवृत्तिवाले क्षेत्रमें होना कठिन पड़ता है । कभी विचारवानको तो प्रवृत्ति क्षेत्रमें सत्समागम विशेष लाभदायक हो जाता है । ज्ञानी-पुरुषकी, भीड़में निर्मल दशा दिखाई देती है । इत्यादि निमित्तसे भी वह विशेष लाभदायक होता है । पर-परिणतिके कार्य करनेका प्रसंग रहे और स्व-परिणतिमें स्थिति रक्खे रहना यह, आनंदघनजीने जो चौदहवें जिनभगवान्की सेवा कही है, उससे भी विशेष कठिन है। ज्ञानी-पुरुषके जिस समयसे नवबाइसे विशुद्ध ब्रह्मचर्य दशा रहे, उस समयसे जो संयम-सुख प्रगट होता है, वह अवर्णनीय है । उपदेश-मार्ग भी उस सुखके प्रगट होनेपर ही प्ररूपण करने योग्य है। ५१३ बम्बई, ज्येष्ठ सुदी १० रवि. १९५१ बहुत बड़े पुरुषोंके ऋद्धि-योगके संबंधमें शास्त्रमें बात आती है, तथा लोक-कथनमें भी वैसी बातें सुनी जाती हैं, उस विषयमें आपको संशय रहता है। उसका उत्तर संक्षेपमें इस तरह है अष्ट महासिद्धि आदि जो जो सिद्धियाँ कहीं हैं, 'ॐ' आदि जो मंत्र-योग कहा है, वह सब सत्य है । परन्तु आत्मैश्वर्यके सामने यह सब तुच्छ है । जहाँ आत्म-स्थिरता है, वहाँ सब प्रकारका सिद्धि-योग रहता है। इस कालमें वैसे पुरुष दिखाई नहीं देते, उससे यह उसकी अप्रतीति होनेका कारण हो जाता है। परन्तु वर्तमानमें किसी किसी जीवमें ही उस तरहकी स्थिरता देखनेमें आती है। बहुतसे जीवोंमें सत्त्वकी न्यूनता रहती है, और उस कारणसे वैसे चमत्कार आदि दिखाई नहीं देते, परन्तु
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy