SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 538
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५० श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ५१० आत्मस्वरूप उसी तरह नहीं है-उसमें कोई बड़ा भेद देखनेमें आता है, और उस उस प्रकारसे सांख्य आदि दर्शनोंमें भी भेद देखा जाता है। ____ मात्र एक श्रीजिनने जो आत्मस्वरूप कहा है वह विशेषातिविशेष अविरोधी देखनेमें आता है-उस प्रकारसे वेदन करनेमें आता है। जिनभगवान्का कहा हुआ आत्मस्वरूप सम्पूर्णतया अविरोधा होना उचित है, ऐसा मालूम होता है। परन्तु वह सम्पूर्णतया अविरोधी ही है, ऐसा जो नहीं कहा जाता, उसका हेतु केवल इतना ही है कि अभी सम्पूर्णतया आत्मावस्था प्रगट नहीं हुई । इस कारण जो अवस्था अप्रगट है, उस अवस्थाका वर्तमानमें अनुमान करते हैं। जिससे उस अनुमानको उसपर अत्यंत भार न देने योग्य मानकर, वह विशेषातिविशेष अविरोधी है, ऐसा कहा है-वह सम्पूर्ण अविरोधी होने योग्य है, ऐसा लगता है। सम्पूर्ण आत्मस्वरूप किसी भी तो पुरुषमें प्रगट होना चाहिये-इस प्रकार आत्मामें निश्चय प्रतीति-भाव आता है। और वह कैसे पुरुषमें प्रगट होना चाहिये, यह विचार करनेसे वह जिनभगवान् जैसे पुरुषको प्रगट होना चाहिये, यह स्पष्ट मालूम होता है । इस सृष्टिमंडलमें यदि किसी भी सम्पूर्ण आत्मस्वरूप प्रगट होने योग्य हो तो वह सर्वप्रथम श्रीवर्धमान स्वामीमें प्रगट होने योग्य लगता है, अथवा उस दशाके पुरुषोंमें सबसे प्रथम सम्पूर्ण आत्मस्वरूप ----- ( अपूण) ५१० बम्बई, वैशाख वदी १० रवि. १९५१ 'अल्पकालमें उपाधिरहित होनेकी इच्छा करनेवालेको आत्म-परिणतिको किस विचारमें लाना योग्य है, जिससे वह उपाधिरहित हो सके ?' यह प्रश्न हमने लिखा था। इसके उत्तरमें तुमने लिखा कि जबतक रागका बंधन है तबतक उपाधिरहित नहीं हुआ जाता, और जिससे वह बंधन आत्मपरिणतिसे कम पड़ जाय, वैसी परिणति रहे तो अल्पकालमें ही उपाधिरहित हुआ जा सकता है-इस तरह जो उत्तर लिखा है, वह यथार्थ है। यहाँ प्रश्नमें इतनी विशेषता है कि यदि बलपूर्वक उपाधि-योग प्राप्त होता हो, उसके प्रति राग-द्वेष आदि परिणति कम हो, उपाधि करनेके लिये चित्तमें बारम्बार खेद रहता हो, और उस उपाधिके त्याग करनेमें परिणाम रहा करता हो, वैसा होनेपर भी उदय-बलसे यदि उपाधि-प्रसंग रहता हो तो उसकी किस उपायसे निवृत्ति की जा सकती है?' इस प्रश्नविषयक जो लक्ष पहुँचे सो लिखना । भावार्थप्रकाश ग्रंथ हमने पढ़ा है । उसमें सम्प्रदायके विवादका कुछ कुछ समाधान हो सके, ऐसी रचना की है, परन्तु तारतम्यसे वह वास्तविक ज्ञानवानकी रचना नहीं, ऐसा मुझे लगता है। ___ श्रीडूंगरने ' अखै पुरुख एक वरख है। यह जो सवैया लिखाया है, वह बाँचा है। श्रीडूंगरको इस सवैयाका विशेष अनुभव है, परन्तु इस सवैयामें भी प्रायः करके छाया जैसा उपदेश देखनेमें आता है, और उससे अमुक ही निर्णय किया जा सकता है, और कभी जो निर्णय किया जाय तो वह पूर्वापर अविरोधी ही रहता है-ऐसा प्रायः करके लक्षमें नहीं आता । जीवके पुरुषार्थ-धर्मको इस प्रकारको
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy