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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ४९६, ४९७, ४९८ ४९६ बम्बई, चैत्र वदी १२ रवि. १९५१ श्रीजिन वीतरागने द्रव्य-भाव संयोगसे फिर फिर छूटनेका उपदेश किया है, और उस संयोगका विश्वास परम ज्ञानीको भी नहीं करना चाहिये, यह अखंड मार्ग जिसने कहा है, ऐसे श्रीजिन वीतरागके चरण-कमलके प्रति अत्यंत भक्तिसे नमस्कार हो। आत्म-स्वरूपके निश्चय होनेमें जीवकी अनादि कालसे भूल होती आती है। समस्त श्रुतज्ञानस्वरूप द्वादशांगमें सबसे प्रथम उपदेश करने योग्य आचारांगसूत्र है । उसके प्रथम श्रुतस्कंधमें प्रथम अध्ययनके प्रथम उद्देशके प्रथम वाक्यमें जो श्रीजिनने उपदेश किया है, वह समस्त अंगोंके समस्त श्रुतज्ञानका सारभूत है--मोक्षका बीजभूत है-सम्यक्त्वस्वरूप है । उस वाक्यमें उपयोग स्थिर होनेसे जीवको निश्चय होगा कि ज्ञानी-पुरुषके समागमकी उपासनाके बिना जीव जो कुछ स्वच्छंदसे निश्चय कर ले, वह छूटनेका मार्ग नहीं है। सभी जीवोंका स्वभाव परमात्मस्वरूप है, इसमें संशय नहीं, तो फिर श्री'"अपनेको परमात्मस्वरूप मानें तो यह बात असत्य नहीं । परन्तु जबतक वह स्वरूप याथातथ्य प्रगट न हो तबतक मुमुक्षुजिज्ञासु-रहना ही अधिक उत्तम है, और उस रास्तेसे यथार्थ परमात्मस्वरूप प्रगट होता है; जिस मार्गको छोड़कर प्रवृत्ति करनेसे उस पदका भान नहीं होता, तथा श्रीजिन वीतराग सर्वज्ञ पुरुषोंकी आसातना करनेरूप प्रवृत्ति होती है । दूसरा कुछ मत-भेद नहीं है । _मृत्युका आगमन अवश्य है। ४९७ तुम्हें वेदान्तविषयक ग्रन्थके बाँचनेका अथवा उस प्रसंगकी बातचीतके श्रवण करनेका समागम हता हो तो जिससे उस बाँचनसे तथा श्रवणसे जीवमें वैराग्य और उपशमकी वृद्धि हो ऐसा करना योग्य है। उसमें प्रतिपादन किये हुए सिद्धांतका यदि निश्चय होता हो तो करनेमें हानि नहीं, फिर भी ज्ञानी-पुरुष समागमकी उपासनासे सिद्धांतका निश्चय किये बिना आत्म-विरोध ही होना संभव है। १९८ बम्बई, चैत्र वदी १४ बुध. १९५१ चारित्र-(श्रीजिनके अभिप्रायके अनुसार चारित्र क्या है ? यह विचारकर समवस्थिति होना)दशासंबंधी अनुप्रेक्षा करनेसे जीवमें स्वस्थता उत्पन्न होती है। विचारद्वारा उत्पन्न हुई चारित्र-परिणामस्वभावरूप स्वस्थताके बिना ज्ञान निष्फल है, यह जो जिनभगवान्का अभिमत है वह अव्याबाध सत्य है। तत्संबंधी अनुप्रेक्षा बहुतबार रहनेपर भी चंचल परिणतिके हेतु उपाधि-योगके तीव्र उदयरूप होनेसे चित्तमें प्रायः करके खेदसे जैसा रहता है, और उस खेदसे शिथिलता उत्पन्न होकर कुछ विशेष नहीं कहा जा सकता । बाकी कुछ कहनेके विषयमें तो चित्तमें बहुत बार रहता है। यही विनती है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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