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________________ पत्र ४९५] विविध पत्र आदि संग्रह-२८वाँ वर्ष हेतुओंसे परमार्थका विचार करते हुए, लिखते हुए, अथवा कहते हुए चित्तका अस्थिरवत् रहना संभव है। उसमें पहिले कहे हुए हेतुका होना संभव नहीं । केवल जो दूसरा हेतु कहा है, वही संभव है । आत्मवीर्यके मंद होनेरूप तीव्र प्रारब्धोदय होनेसे उस हेतुको दूर करनेका पुरुषार्थ होनेपर भी कालक्षेप हुआ करता है, और उस प्रकारके उदयतक वह अस्थिरता दूर होनी कठिन है; और उससे परमार्थस्वरूप चित्तके बिना तत्संबंधी लिखना या कहना, यह कल्पित जैसा ही लगता है । तो भी कुछ प्रसंगोंमें विशेष स्थिरता रहती है। व्यवहारके संबंधमें कुछ भी लिखते हुए उसके असारभूत और साक्षात् भ्रांतिरूप लगनेसे उसके संबंधमें कुछ लिखना अथवा कहना तुच्छ ही है, वह आत्माको विकलताका हेतु है, और जो कुछ लिखना या कहना है, वह न कहा हो तो भी चल सकता है। इसलिये जबतक वैसा रहे तबतक तो अवश्य वैसा करना योग्य है, ऐसा जानकर बहुतसी व्यावहारिक बातें लिखने, करने अथवा कहनेकी आदत नहीं रही है । केवल जिस व्यापार आदि व्यवहारमें तीन प्रारब्धोदयसे प्रवृत्ति है, वहाँ कुछ कुछ प्रवृत्ति होती है । यद्यपि उसकी भी यथार्थता मालूम नहीं होती। श्रीजिन वीतरागने द्रव्य-भाव संयोगसे फिर फिर छूटनेका उपदेश दिया है, और उस संयोगका विश्वास परम ज्ञानीको भी नहीं करना चाहिये, यह निश्चल मार्ग जिन्होंने कहा है, उन श्रीजिन वीतरागके चरण-कमलमें अत्यंत नम्र परिणामसे नमस्कार है। दर्पण, जल, दीपक, सूर्य और चक्षुके स्वरूपके ऊपर विचार करोगे तो वह विचार, केवलज्ञानसे पदार्थ प्रकाशित होते हैं, ऐसा जो कहा है, उसे समझनेमें कुछ कुछ उपयोगी होगा। ४९५ केवलज्ञानसे पदार्थ किस तरह दिखाई देते हैं ! इस प्रश्नका उत्तर समागममें समझनेसे स्पष्ट समझमें आ सकता है। तो भी संक्षेपमें नीचे लिखा है: जैसे जहाँ जहाँ दीपक होता है, वहाँ वहाँ वह प्रकाशरूपसे होता है, उसी तरह जहाँ जहाँ ज्ञान होता है वहाँ वहाँ वह प्रकाशरूपसे ही होता है। जैसे दीपकका सहज स्वभाव ही पदार्थको प्रकाश करनेका होता है, वैसे ही ज्ञानका सहज स्वभाव भी पदार्थोंको प्रकाश करनेका है । दीपक द्रव्यका प्रकाशक है, और ज्ञान द्रव्य-भाव दोनोंका प्रकाशक है । जैसे दीपकका प्रकाश होनेसे उसके प्रकाशकी सीमामें जो कोई पदार्थ होता है, वह पदार्थ कुदरती ही दिखाई देता है, उसी तरह ज्ञानकी मौजूदगीसे पदार्थ स्वाभाविकरूपसे दिखाई देते हैं। जिसमें सम्पूर्ण पदार्थ याथातथ्य और स्वाभाविकरूपसे दिखाई देते हैं, उसे केवलज्ञान कहा है । यद्यपि परमार्थसे ऐसा कहा है कि केवलज्ञान भी अनुभवमें तो केवल आत्मानुभवका ही कर्ता है, वह व्यवहारनयसे ही लोकालोक प्रकाशक है । जैसे दर्पण, दीपक और चक्षु पदार्थके प्रकाशक हैं, उसी तरह ज्ञान भी पदार्थका प्रकाशक है ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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