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________________ ४४० श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ४९१, ४९२ ४९१ बम्बई, चैत्र वदी ८, १९५१ आत्म-वीर्यके प्रवृत्ति करनेमें और संकोच करनेमें बहुत विचारपूर्वक प्रवृत्ति करना योग्य है। शुभेच्छा संपन्न भाई""के प्रति । उस ओर आनेके संबंधमें नीचे लिखी परिस्थिति है। जिससे लोगोंको संदेह हो इस तरहके बाह्य व्यवहारका उदय है, और उस प्रकारके व्यवहारके साथ बलवान निर्मथ पुरुष जैसा उपदेश करना, वह मार्गका विरोध करने जैसा है; और ऐसा समझकर तथा उनके समान दूसरे कारणोंके स्वरूपका विचार कर प्रायः करके जिससे लोगोंको संदेहका हेतु हो, वैसे समागममें मेरा आना नहीं होता । कदाचित् कभी कभी कोई समागममें आता है, और कुछ स्वाभाविक कहना-करना होता है । इसमें भी चित्तकी इच्छित प्रवृत्ति नहीं है। पूर्वमें यथास्थित विचार किये बिना जीवने प्रवृत्ति की, इस कारण इस प्रकारके व्यवहारका उदय प्राप्त हुआ है; इससे बहुत बार चित्तमें शोक रहता है । परन्तु उसे यथास्थित सम परिणामसे सहन करना ही योग्य है-ऐसा जानकर प्रायः करके उस प्रकारकी प्रवृत्ति रहती है । फिर भी आत्मदशाके विशेष स्थिर होनेके लिये असंगतामें लक्ष रहा करता है । इस व्यापार आदि उदय-व्यवहारसे जो जो संग होता है, उसमें प्रायः करके असंग परिणामकी तरह प्रवृत्ति होती है, क्योंकि उसमें कुछ सारभूत नहीं मालूम होता । परन्तु जिस धर्म-व्यवहारके प्रसंगमें आना हो, वहाँ उस प्रवृत्तिके अनुसार चलना योग्य नहीं । तथा कोई दूसरा आशय समझकर प्रवृत्ति की जाय तो हालमें उतनी समर्थता नहीं। इससे उस प्रकारके प्रसंगमें प्रायः करके मेरा आना कम ही होता है; और इस क्रमको बदल देना, यह हालमें चित्तमें नहीं बैठता। फिर भी उस ओर आनेके प्रसंगमें वैसा करनेका मैंने कुछ भी विचार किया था, परन्तु उस क्रमको बदलनेसे दूसरे विषम कारणोंका उपस्थित होना आगे जाकर संभव होगा, ऐसा प्रत्यक्ष मालूम होनेसे क्रम बदलनेके संबंधमें वृत्तिके उपशम करने योग्य लगनेसे वैसा किया है । इस आशयके सिवाय उस ओर न आनेके संबंधमें चित्तमें दूसरा आशय भी है । परन्तु किसी लोक-व्यवहाररूप कारणसे आनेके विषयमें विचारको नहीं छोड़ा है। चित्तपर बहुत दबाव देकर यह स्थिति लिखी है । इसपर विचार कर यदि कुछ आवश्यक जैसा मालूम हो तो कभी रतनजीभाईको खुलासा करना । मेरे आने न आनेक विषयमें यदि किसी बातका कथन न करना संभव हो तो कथन न करनेके लिये ही विनती है । ४९२ बम्बई, चैत्र वदी १० शुक्र. १९५१ एक आत्म-परिणतिके सिवाय दूसरे विषयोंमें चित्त अव्यवस्थितरूपसे रहता है; और उस प्रकारका अव्यवस्थितपना लोक-व्यवहारसे प्रतिकूल होनेसे लोक-व्यवहारका सेवन करना रुचिकर नहीं लगता और साथ ही छोड़ना भी नहीं बनता, इस वेदनाका प्रायः करके सारे ही दिन संवेदन होता रहता है। खानेके संबंधमें, पीनेके संबंध, बोलनेके संबंधमें, सोनेके संबंधमें, लिखनेके संबंधों अथवा दूसरे व्यावहारिक कार्योंके संबंधमें जैसा चाहिये वैसे भानसे प्रवृत्ति नहीं की जाती, और उन प्रसंगोंके
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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