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________________ पत्र ४८८, ४८९, ४९०] विविध पत्र आदि संग्रह-२८वाँ वर्ष ४३९ ४८८ बम्बई, चैत्रं सुदी ६ सोम. १९५१ आज एक पत्र मिला है । यहाँ कुशलता है। पत्र लिखते लिखते अथवा कुछ कहते कहते बारम्बार चित्तकी अप्रवृत्ति होती है और 'कल्पित बातका इतना अधिक माहात्म्य ही क्या है ! कहना क्या ? जानना क्या ? सुनना क्या ! प्रवृत्ति कैसी !' इत्यादि विक्षेपसे चित्तकी उसमें अप्रवृत्ति होती है; और परमार्थके संबंधमें कहते हुए, लिखते हुए उससे दूसरे प्रकारके विक्षेपकी उत्पत्ति होती है । जिस विक्षेपमें मुख्य इस तीव्र प्रवृत्तिके निरोधके बिना उसमें-परमार्थ कथनमें-भी हालमें अप्रवृत्ति ही श्रेयस्कर लगती है । इस बाबत पहिले एक सविस्तर पत्र लिखा है, इसलिये यहाँ विशेष लिखने जैसा कुछ नहीं है। यहाँ मात्र चित्तमें विशेष स्फूर्ति होनेसे ही यह लिखा है। मोतीके व्यापार वगैरहकी प्रवृत्तिका अधिक न करना हो सके तो ठीक है, ऐसा जो लिखा है वह यथायोग्य है और चित्तकी इच्छा भी नित्य ऐसी ही रहा करती है । लोभके हेतुसे वह प्रवृत्ति होती है या और किसी हेतुसे ? ऐसा विचार करनेपर लोभका निदान मालूम नहीं होता । विषय आदिकी इच्छासे यह प्रवृत्ति होती है, ऐसा भी मालूम नहीं होता। फिर भी प्रवृत्ति तो होती है, इसमें सन्देह नहीं। जगत् कुछ लेनेके लिये प्रवृत्ति करता है, यह प्रवृत्ति देनेके लिये ही होती होगी, ऐसा मालूम होता है । यहाँ जो यह मालूम होता है, सो यह यथार्थ होगा या नहीं ! उसके लिये विचारवान पुरुष जो कहें सो प्रमाण है। बम्बई, चैत्र सुदी १३, १९५१ हालमें यदि किन्हीं वेदान्तसंबंधी ग्रन्थोंका बाँचन अथवा श्रवण करना रहता हो तो उस अभिप्रायका विशेष विचार होनेके लिये थोड़े समयके लिये श्रीआचारांग, सूयगडांग तथा उत्तराध्ययनका बाँचना-विचारना हो सके तो करना । वेदान्तके सिद्धांतों तथा जिनागमके सिद्धांतमें भिन्नता है, तो भी जिनागमको विशेष विचारका स्थल मानकर वेदान्तका पृथक्करण करनेके लिये उन आगमोंका बाँचना-विचारना योग्य है । ४९० बम्बई, चैत्र वदी ८ बुध. १९५१ चेतनकी चेतन पर्याय होती है, और जड़की जड़ पर्याय होती है-यही पदार्थकी स्थिति है । प्रत्येक समय जो जो परिणाम होते हैं, वे सब पर्याय हैं। विचार करनेसे यह बात यथार्थ मालूम होगी। लिखना कम हो सकता है, इसलिये बहुतसे विचारोंका कहना बन नहीं सकता । तथा बहुतसे विचारोंके उपशम करनेरूप प्रकृतिका उदय होनेसे किसीको स्पष्टरूपसे कहना भी नहीं हो सकता। हालमें यहाँ इतनी अधिक उपाधि नहीं रहती, तो भी प्रवृत्तिरूप संग होनेसे तथा क्षेत्रके संतापरूप होनेसे थोरे दिनके लिये यहाँसे निवृत्त होनेका विचार होता है । अब इस विषयमें जो हो सो ठीक है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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