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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ४४९ महात्माके चित्तकी स्थिरता भी जिसमें रहनी कठिन है, ऐसे दुःषमकालमें तुम सबपर अनुकंपा आती है, यह विचारकर लोकके आवेशमें प्रवृत्ति करते हुए मुझे तुमने जो प्रश्न आदि लिखनेरूप चित्तमें अवकाश प्रदान किया, इससे मेरे मनको संतोष हुआ है । ४४९ बम्बई, कार्तिक सुदी ३ बुध. १९५१ श्री सत्पुरुषको नमस्कार श्री सूर्यपुरस्थित, वैराग्यचित्त, सत्संग-योग्य श्री....... के प्रति-श्री मोहमयी भूमिसे जीवन्मुक्त दशाके इच्छुक श्री......"का आत्मस्मृतिपूर्वक यथायोग्य पहुँचे । विशेष विनती है कि तुम्हारे लिखे हुए तीनों पत्र थोड़े थोड़े दिनके अंतरसे मिले हैं। यह जीव अत्यंत मायाके आवरणसे दिशा-मूढ़ हो गया है, और उस संबंधसे उसकी परमार्थदृष्टि प्रगट नहीं होती-अपरमार्थमें परमार्थका दृढ़ आग्रह हो गया है, और उससे बोध प्राप्त होनेके संबंधसे भी जिससे उसमें बोधका प्रवेश हो सके, ऐसा भाव स्फुरित नहीं होता, इत्यादि रूपसे जीवकी विषम दशा कहकर प्रभुके प्रति दीनता प्रगट की है कि ' हे नाथ ! अब मेरी कोई गति ( मार्ग) मुझे नहीं दिखाई देती । क्योंकि मैंने सर्वस्व लुटा देने जैसा काम किया है, और स्वाभाविक ऐश्वर्यके होते हुए प्रयत्न करनेपर भी उस ऐश्वर्यसे विपरीत मार्गका ही मैंने आचरण किया है, उस उस संबंधसे मेरी निवृत्ति कर, और उस निवृत्तिका सर्वोत्तम सदुपायभूत जो सद्गुरुके प्रति शरण भाव है, वह जिससे उत्पन्न हो, ऐसी कृपा कर।' इस भावके बीस दोहे हैं, जिनमें " हे प्रभु ! हे प्रभु! शुं कहुं ? दीनानाथ दयाल " यह प्रथम वाक्य है । वे दोहे तुम्हें याद होंगे । जिससे इन दोहोंकी विशेष अनुप्रेक्षा हो वैसे करोगे तो यह विशेष गुणावृत्तिका हेतु है । उनके साथ दूसरे आठ त्रोटक छंदोंकी अनुप्रेक्षा करना भी योग्य है, जिसमें इस जीवको क्या आचरण करना बाकी रहा है, और जो जो परमार्थके नामसे आचरण किया वह अबतक वृथा ही हुआ, तथा उस आचरणमें मिथ्या आग्रहको निवृत्त करनेके लिये जो उपदेश दिया है, वह भी अनुप्रेक्षा करनेसे जीवको विशेष पुरुषार्थका हेतु है।। योगवासिष्ठका बाँचन पूरा हो गया हो तो थोड़े समय उसको बन्द रखकर अर्थात् अब फिरसे उसका बाँचना बन्द करके उत्तराध्ययनसूत्रका विचार करना । परन्तु उसका कुल-सम्प्रदायके आग्रहार्थके निवृत्त करनेके लिये ही विचार करना। क्योंकि जीवको कुल-योगसे जो सम्प्रदाय प्राप्त हुआ रहता है, वह परमार्थरूप है या नहीं, ऐसा विचार करनेसे दृष्टि आगे नहीं चलती; और सहज ही उसे ही परमार्थ मानकर जीव परमार्थसे चूक जाता है । इसलिये मुमुक्षु जीवका तो यही कर्तव्य है कि जीवको सद्गुरुके योगसे कल्याणकी प्राप्ति अल्प कालमें ही होनेके साधनभूत वैराग्य और उपशमके लिये योगवासिष्ठ, उत्तराध्ययन आदिका विचार करना योग्य है, तथा प्रत्यक्ष पुरुषके वचनोंका पूर्वापर अविरोध भाव जाननेके लिये विचार करना योग्य है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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