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________________ पत्र ४४७ गांधीजीके प्रभोंका उत्तर] विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष ४१५ हो सके, उसे मानकर और उसका परमार्थ स्वरूप विचारकर अपनी आत्मामें भी उसी तरहकी निष्ठा रखकर उसी महात्माकी आत्माके आकारसे ( स्वरूपसे ) प्रतिष्ठान हो, तभी मोक्ष होनी संभव है। बाकी दूसरी उपासना सर्वथा मोक्षका हेतु नहीं है-वह उसके साधनका ही हेतु होती है। वह भी निश्चयसे हो ही, ऐसा नहीं कहा जा सकता । २६. प्रश्नः— ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर कौन थे ? उत्तर-सृष्टिके हेतुरूप तीन गुणोंको मानकर उनके आश्रयसे उनका यह रूप बताया हो, तो यह बात ठीक बैठ सकती है, तथा उस प्रकारके दूसरे कारणोंसे उन ब्रह्मा आदिका स्वरूप समझमें आता है। परन्तु पुराणोंमें जिस प्रकारसे उनका स्वरूप कहा है, वह स्वरूप उसी प्रकारसे है, ऐसा माननेमें मेरा विशेष झुकाव नहीं है । क्योंकि उनमें बहुतसे रूपक उपदेशके लिये कहे हों, ऐसा भी मालूम होता है। फिर भी हमें उनका उपदेशके रूपमें लाभ लेना, और ब्रह्मा आदिके स्वरूपका सिद्धांत करनेकी जंजालमें न पड़ना, यही मुझे ठीक लगता है। २७. प्रश्नः--यदि मुझे सर्प काटने आवे तो उस समय मुझे उसे काटने देना चाहिये या उसे मार डालना चाहिये ? यहाँ ऐसा मान लेते हैं कि उसे किसी दूसरी तरह हटानेकी मुझमें शक्ति नहीं है। उत्तर:--सर्पको तुम्हें काटने देना चाहिये, यह काम यद्यपि स्वयं करके बतानेसे विचारमें प्रवेश कर सकता है, फिर भी यदि तुमने यह जान लिया हो कि देह अनित्य है, तो फिर इस असारभूत देहकी रक्षाके लिये, जिसको उसमें प्रीति है, ऐसे सर्पको मारना तुम्हें कैसे योग्य हो सकता है ! जिसे आत्म-हितकी चाहना है, उसे तो फिर अपनी देहको छोड़ देना ही योग्य है । कदाचित् यदि किसीको आत्म-हितकी इच्छा न हो तो उसे क्या करना चाहिये ? तो इसका उत्तर यही दिया जा सकता है कि उसे नरक आदिमें परिभ्रमण करना चाहिये; अर्थात् सर्पको मार देना चाहिये । परन्तु ऐसा उपदेश हम कैसे कर सकते हैं ! यदि अनार्य-वृत्ति हो तो उसे मारनेका उपदेश किया जाय, परन्तु वह तो हमें और तुम्हें स्वप्नमें भी न हो, यही इच्छा करना योग्य है। अब संक्षेपमें इन उत्तरोंको लिखकर पत्र समाप्त करता हूँ। षट्दर्शनसमुच्चयके समझनेका विशेष प्रयत्न करना। मेरे इन प्रश्नोत्तरोंके लिखनेके संकोचसे तुम्हें इनका समझना विशेष अकुलताजनक हो, ऐसा यदि जरा भी मालूम हो, तो भी विशेषतासे विचार करना, और यदि कुछ भी पत्रद्वारा पूँछने योग्य मालूम दे तो यदि पूँछोगे तो प्रायः करके उसका उत्तर लिखूगा । विशेष समागम होनेपर समाधान होना अधिक योग्य लगता है। लिखित आत्मस्वरूपमें नित्य निष्ठाके हेतुभूत विचारकी चिंतामें रहनेवाले रायचन्द्रका प्रणाम । ४४८ बम्बई, कार्तिक सुदी १, १९५१ मतिज्ञान आदिके प्रश्नोंके विषयों पत्रद्वारा समाधान होना कठिन है। क्योंकि उन्हें विशेष बाँचनेकी या उत्तर लिखनेकी आजकल प्रवृत्ति नहीं हो सकती।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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