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________________ पत्र ४४७ गांधीजीके प्रश्नों के उत्तर] विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष . ४१३ १९. प्रश्नः-जिन मोक्ष प्राप्त पुरुषोंके नामका आप उल्लेख करते हो, वह किस आधारसे करते हो! उत्तर:-इस प्रश्नको यदि मुझे खास तौरसे लक्ष करके पूंछते हो तो उसके उत्तरमें यह कहा जा सकता है कि जिसकी संसार दशा अत्यंत परिक्षीण हो गई है, उसके वचन इस प्रकारके संभव हैं, उसकी चेष्टा इस प्रकारकी संभव है, इत्यादि अंशसे भी अपनी आत्मामें जो अनुभव हुआ हो, उसके आधारसे उन्हें मोक्ष हुआ कहा जा सकता है; और प्रायः करके वह यथार्थ ही होता है। ऐसा माननेमें जो प्रमाण हैं वे भी शास्त्र आदिसे जाने जा सकते हैं। २०. प्रश्न:-बुद्धदेवने भी मोक्ष नहीं पाई, यह आप किस आधारसे कहते हो ? उत्तर:---उनके शास्त्र-सिद्धांतोंके आधारसे । जिस तरहसे उनके शास्त्र-सिद्धांत हैं, यदि उसी तरह उनका अभिप्राय हो तो वह अभिप्राय पूर्वापर-विरुद्ध भी दिखाई देता है, और वह सम्पूर्ण ज्ञानका लक्षण नहीं है। __ जहाँ सम्पूर्ण ज्ञान नहीं होता वहाँ सम्पूर्ण राग-द्वेषका नाश होना संभव नहीं । जहाँ वैसा हो वहाँ संसारका होना ही संभव है। इसलिये उन्हें सम्पूर्ण मोक्ष मिली हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। और उनके कहे हुए शास्त्रोंमें जो अभिप्राय है उसको छोड़कर उनका कुछ दूसरा ही अभिप्राय था, उसे दूसरे प्रकारसे तुम्हें और हमें जानना कठिन पड़ता है; और फिर भी यदि कहें कि बुद्धदेवका अभिप्राय कुछ दूसरा ही था तो उसे कारणपूर्वक कहनेसे वह प्रमाणभूत न समझा जाय, यह बात नहीं है । २१. प्रश्नः-दुनियाकी अन्तिम स्थिति क्या होगी? उत्तर:--सब जीवोंको सर्वथा मोक्ष हो जाय, अथवा इस दुनियाका सर्वथा नाश ही हो जाय, ऐसा होना मुझे प्रमाणभूत नहीं मालूम होता । इसी तरहके प्रवाहमें उसकी स्थिति रहती है। कोई भाव रूपांतरित होकर क्षीण हो जाता है, तो कोई वर्धमान होता है; वह एक क्षेत्रमें बढ़ता है तो दूसरे क्षेत्रमें घट जाता है, इत्यादि रूपसे इस सृष्टिकी स्थिति है । इसके ऊपरसे और बहुत ही गहरे विचारमें उतरनेके पश्चात् ऐसा कहना संभव है कि यह सृष्टि सर्वथा नाश हो जाय, अथवा इसकी प्रलय हो जाय, यह होना संभव नहीं । सृष्टिका अर्थ एक इसी पृथिवीसे नहीं समझना चाहिये । २२. प्रश्नः इस अनीतिमेंसे सुनीति उद्भूत होगी, क्या यह ठीक है ! उत्तरः-इस प्रश्नका उत्तर सुनकर जो जीव अनीतिकी इच्छा करता है, उसके लिये इस उत्तरको उपयोगी होने देना योग्य नहीं। नीति-अनीति सर्व भाव अनादि हैं। फिर भी हम तुम अनीतिका त्याग करके यदि नीतिको स्वीकार करें, तो इसे स्वीकार किया जा सकता है, और यही आत्माका कर्तव्य है। और सब जीवोंकी अपेक्षा अनीति दूर करके नीतिका स्थापन किया जाय, यह वचन नहीं कहा जा सकता, क्योंकि एकांतसे उस प्रकारकी स्थितिका हो सकना संभव नहीं। २३. प्रश्न: क्या दुनियाकी प्रलय होती है! उत्तरः-प्रलयका अर्थ यदि सर्वथा नाश होना किया जाय तो यह बात ठीक नहीं। क्योंकि पदार्पका सर्वणा नाश हो जाना संभव ही नहीं है। यदि प्रलयका अर्थ सब पदार्थीका ईबर धादिमें
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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