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________________ प्रास्ताविक निवेदन 00 + दो वर्ष से भी अधिक हुए, जब मैंने 'श्रीमद् राजचन्द्र' के हिन्दी अनुवादका काम हाथमें लिया था, उस समय मेरी कल्पना थी कि यह काम सुलभ ही होगा और इसमें अधिक श्रम और समयकी आवश्यकता न पड़ेगी। पर ज्यों ज्यों मैं आगे बढ़ा, त्यों त्यों मुझे इसकी गहराईका अधिकाधिक अनुभव होता गया । एक तो ग्राम्य और संस्कृतमिश्रित गुजराती भाषा, धाराप्रवाह लम्बे लम्बे वाक्योंका 'विन्यास, भावपूर्ण मपे-तुले शब्द और उसमें फिर अध्यात्मतत्त्वका स्वानुभूत विवेचन आदि बातों से इस कार्यकी कठिनताका अनुभव मुझे दिनपर दिन बढ़ता ही गया । पर अब कोई उपायान्तर न था । मैंने इस समुद्र में खूब ही गोते लगाये । अपने जीवनकी अनेक घड़ियाँ इसके एक एक शब्द और वाक्यके चिन्तन-मनन करनेमें बिताईं। अनेक स्थलों के चक्कर लगाये, और बहुतसोंकी खुशामदें भी करनी पड़ीं । आज अढाई बरसके अनवरत कठिन परिश्रमके पश्चात् मैं इस अनुवादको पाठकोंके समक्ष लेकर उपस्थित हुआ हूँ । यद्यपि मुझे मालूम है कि पर्याप्त साधनाभाव आदिके कारणों से इस अनुवाद में खलनायें भी हुई हैं ( ये सब ' संशोधन और परिवर्तन ' में सुधार दी गई हैं), पर इस संबंध में इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि मैंने अपनी योग्यता और शक्तिको न छिपाकर इसे परिपूर्ण और निर्दोष बनाने में पूर्ण परिश्रम और सचाईसे काम किया हैं । 6 श्रीमद् राजचन्द्र ' के कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत हिन्दी अनुवादमें प्राकृतकी गाथायें आदि संशोधनके साथ साथ ग्रन्थका और भी अनेक स्थलोंपर संशोधन किया गया है। मुझे स्वयं राजचन्द्रजीके हस्तलिखित मूल पत्रों आदिके संग्रहके देखनेका अवसर नहीं मिल सका, इसलिये इन पत्रों आदिकी 'नकल' तथा आजतक प्रकाशित ' श्रीमद् राजचन्द्र ' के गुजराती संस्करणोंको ही आधार मानकर काम चलाना पड़ा है । प्रस्तुत ग्रंथमें राजचन्द्रजीके मुख्य मुख्य लेखों और पत्रों आदिका प्रायः सब संग्रह आ जाता है । इन प्रकाशित पत्रों में आदि-अन्तका और बहुतसी जगह बीचका भाग भी छोड़ दिया गया है। जहाँ किसी व्यक्तिविशेष आदिका नाम आता है, वहाँ बिन्दु ... ........ लगा दिये गये हैं । इन सब बातोंमें गुजरातीके पूर्व संस्करणों का ही अनुकरण किया गया है । अनुवाद करते समय यद्यपि गुजराती के अन्य संस्करणों के साथ भी मूलका मिलान किया है, पर यह अनुवाद खास करके श्रीयुत स्व० मनसुखभाई कीरतचंदद्वारा सम्पादित, परमश्रुतप्रभावकमण्डलके गुजराती संस्करण( विक्रम संवत् १९८२ ) का ही अक्षरश: अनुवाद समझना चाहिये । अनुवादके अन्तमें छह परिशिष्ट 1 हैं, जो बिलकुल नूतन हैं । पहलेमें ग्रंथके अंतर्गत विशिष्ट शब्दों का संक्षिप्त परिचय, दूसरेमें उद्धरणोंके स्थल आदिके साथ उनकी वर्णानुक्रमणिका, तीसरे में विशिष्ट शब्दोंकी वर्णानुक्रमणिका, चौथेमें ग्रन्थ और प्रन्थकारोंकी वर्णानुक्रमणिका, पाँचवेंमें मुमुक्षुओंके नामोंकी सूची, और छहे परिशिष्टमें ' आत्मसिद्धि' के पयोंकी वर्णानुक्रमणिका दी है । अन्तमें ग्रंथका 'संशोधन और परिवर्तन' दिया 1
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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