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________________ पत्र ४४७ गांधीजीके प्रमों के उत्तर] विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष ४०९ ४. प्रश्न:-मोक्ष मिलेगा या नहीं? क्या यह इसी देहमें निश्चितरूपसे जाना जा सकता है ! उत्तरः-जैसे यदि एक रस्सीके बहुतसे बंधनोंसे हाथ बाँध दिया गया हो, और उसमेंसे क्रम क्रमसे ज्यों ज्यों बंधन खुलते जाते हैं त्यों त्यों उस बंधनकी निवृत्तिका अनुभव होता है, और वह रस्सी बलहीन होकर स्वतंत्रभावको प्राप्त होती है, ऐसा मालूम होता है.-अनुभवमें आता है; उसी तरह आत्माको अज्ञानभावके अनेक परिणामरूप बंधनका समागम लगा हुआ है, वह बंधन ज्यों ज्यों छूटता जाता है, त्यों त्यों मोक्षका अनुभव होता है। और जब उसकी अत्यन्त अल्पता हो जाती है तब सहज ही आत्मामें निजभाव प्रकाशित होकर अज्ञानभावरूप बंधनसे छूट सकनेका अवसर आता है, इस प्रकार स्पष्ट अनुभव होता है। तथा सम्पूर्ण आत्मभाव समस्त अज्ञान आदि भावसे निवृत्त होकर इसी देहमें रहनेपर भी आत्माको प्रगट होता है, और सर्व संबंधसे केवल अपनी भिन्नता ही अनुभवमें आती है, अर्थात् मोक्ष-पद इस देहमें भी अनुभवमें आने योग्य है। ५. प्रश्न:-ऐसा पढ़ने में आया है कि मनुष्य, देह छोड़नेके बाद कर्मके अनुसार जानवरोंमें जन्म लेता है; वह पत्थर और वृक्ष भी हो सकता है, क्या यह ठीक है ? उत्तरः-देह छोड़नेके बाद उपार्जित कर्मके अनुसार ही जीवकी गति होती है, इससे वह तिर्यच (जानवर ) भी होता है, और पृथ्वीकाय अर्थात् पृथ्वीरूप शरीर भी धारण करता है, और बाकीकी दूसरी चार इन्द्रियोंके बिना भी जीवको कर्मके भोगनेका प्रसंग आता है, परन्तु वह सर्वथा पत्थर अथवा पृथिवी ही हो जाता है, यह बात नहीं है । वह पत्थररूप काया धारण करता है, और उसमें भी अव्यक्त भावसे जीव जीवरूपसे ही रहता है । वहाँ दूसरी चार इन्द्रियोंका अव्यक्त (अप्रगट) पना होनेसे वह पृथ्वीकायरूप जीव कहे जाने योग्य है । क्रम क्रमसे ही उस कर्मको भोगकर जीव निवृत्त होता है। उस समय केवल पत्थरका दल परमाणुरूपसे रहता है, परन्तु उसमें जीवका संबंध चला आता है, इसलिये उसे आहार आदि संज्ञा नहीं होती । अर्थात् जीव सर्वथा जड़-पत्थर-हो जाता है, यह बात नहीं है। कर्मकी विषमतासे चार इन्द्रियोंका अव्यक्त समागम होकर केवल एक स्पर्शन इन्द्रियरूपसे जीवको जिस कर्मसे देहका समागम होता है, उस कर्मके भोगते हुए वह पृथिवी आदिमें जन्म लेता है, परन्तु वह सर्वथा पृथ्वीरूप अथवा पत्थररूप नहीं हो जाता; जानवर होते समय सर्वथा जानवर भी नहीं हो जाता । जो देह है वह जीवका वेषधारीपना है, स्वरूपपना नहीं। ६-७. प्रश्नोत्तरः-इसमें छहे प्रश्नका भी समाधान आ गया है । इसमें सातवें प्रश्नका भी समाधान आ गया है, कि केवल पत्थर अथवा पृथ्वी किसी कर्मका कर्ता नहीं है। उनमें आकर उत्पन्न हुआं जीव ही कर्मका कर्ता है, और वह भी दूध और पानीकी तरह है। जैसे दूध और पानीका संयोग होनेपर भी दूध दूध है और पानी पानी ही है, उसी तरह एकेन्द्रिय आदि कर्मबंधसे जीवका पत्थरपना-जड़पना-मालूम होता है, तो भी वह जीव अंतरमें तो जीवरूपसे ही है, और वहाँ भी वह आहार भय आदि संज्ञापूर्वक ही रहता है, जो अव्यक्त जैसी है। ८ प्रमः-आर्यधर्म क्या है। क्या सबकी उत्पत्ति वेदसे.ही हुई है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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