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________________ ४०८ श्रीमद् राजचन्द्र पत्र ४४७ गांधीजीके प्रभौके उत्तर दर्शन भी इसीसे मिलते जुलते इसी प्रकारके शब्द कहते हैं । वास्तविक विचार करनेसे आत्मा घट पट आदिका तथा क्रोध आदिका कर्त्ता नहीं हो सकती, वह केवल निजस्वरूप ज्ञान-परिणामका ही कर्ता है-ऐसा स्पष्ट समझमें आता है। (३) अज्ञानभावसे किए हुए कर्म प्रारंभ कालसे बीजरूप होकर समयका योग पाकर फलरूप वृक्षके परिणामसे परिणमते हैं; अर्थात् उन कर्मोको आत्माको भोगना पड़ता है । जैसे अग्निके स्पर्शसे उष्णताका संबंध होता है और वह उसका स्वाभाविक वेदनारूप परिणाम होता है, वैसे ही आत्माको क्रोध आदि भावके कर्त्तापनेसे जन्म, जरा, मरण आदि वेदनारूप परिणाम होता है। इस बातका तुम विशेषरूपसे विचार करना और उस संबंधमें यदि कोई प्रश्न हो तो लिखना । क्योंकि इस बातको समझकर उससे निवृत्त होनेरूप कार्य करनेपर जीवको मोक्ष दशा प्राप्त होती है । २. प्रश्न:-ईश्वर क्या है ? वह जगत्का कर्ता है, क्या यह सच है ! उत्तरः-(१) हम तुम कर्म-बंधनमें फंसे रहनेवाले जीव हैं। उस जीवका सहजस्वरूप अर्थात् कर्म रहितपना-मात्र एक आत्मस्वरूप-जो स्वरूप है, वही ईश्वरपना है। जिसमें ज्ञान आदि ऐश्वर्य हैं वह ईश्वर कहे जाने योग्य है और वह ईश्वरपना आत्माका सहज स्वरूप है। जो स्वरूप कर्मके कारण मालूम नहीं होता, परन्तु उस कारणको अन्य स्वरूप जानकर जब आत्माकी ओर दृष्टि होती है, तभी अनुक्रमसे सर्वज्ञता आदि ऐश्वर्य उसी आत्मामें मालूम होता है। और इससे विशेष ऐश्वर्ययुक्त कोई पदार्थकोई भी पदार्थ-देखनेपर भी अनुभवमें नहीं आ सकता । इस कारण ईश्वर आत्माका दूसरा पर्यायवाची नाम है; इससे विशेष सत्तायुक्त कोई पदार्थ ईश्वर नहीं है। इस प्रकार निश्चयसे मेरा अभिप्राय है। (२) वह जगत्का कर्ता नहीं; अर्थात् परमाणु आकाश आदि पदार्थ नित्य ही होने संभव हैं, वे किसी भी वस्तुमेंसे बनने संभव नहीं। कदाचित् ऐसा माने कि वे ईश्वरमेंसे बने हैं तो यह बात भी योग्य नहीं मालूम होती। क्योंकि यदि ईश्वरको चेतन मानें तो फिर उससे परमाणु, आकाश वगैरह कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ! क्योंकि चेतनसे जड़की उत्पत्ति कभी संभव ही नहीं होती । यदि ईश्वरको जड़ माना जाय तो वह सहज ही अनैश्चर्यवान ठहरता है। तथा उससे जीवरूप चेतन पदार्थकी उत्पत्ति भी नहीं हो सकती। यदि ईश्वरको जड़ और चेतन उभयरूप मानें तो फिर जगत् भी जड़-चेतन उभयरूप होना चाहिये । फिर तो यह उसका ही दूसरा नाम ईश्वर रखकर संतोष रखने जैसा होता है। तथा जगत्का नाम ईश्वर रखकर संतोष रख लेनेकी अपेक्षा जगत्को जगत् · कहना ही विशेष योग्य है । कदाचित् परमाणु, आकाश आदिको नित्य मानें और ईश्वरको कर्म आदिके फल देनेवाला मानें, तो भी यह बात सिद्ध होती हुई नहीं मालूम होती । इस विषयपर षट्दर्शनसमुच्चसमें श्रेष्ठ प्रमाण दिये हैं। . ३. प्रश्नः-मोक्ष क्या है। उत्तर:-जिस क्रोध आदि अज्ञानभावमें देह आदिमें आत्माको प्रतिबंध है, उससे सर्वथा निवृत्ति होना-मुक्ति होना--उसे ज्ञानियोंने मोक्ष-पद कहा है । उसका थोकासा विचार करनेसे वह प्रमाणभूत मालूम होता है। PA
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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