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________________ पत्र ४१९] विविध पत्रमादि संग्रह-२७वाँ वर्ष वैसा होनेके कारण जगह जगह इसी अधिकारका व्याख्यान किया गया है । यदि जीवको आरंभ-परिप्रहकी विशेष प्रवृत्ति रहती हो तो, और वैराग्य और उपशम हो, तो उसका भी नष्ट हो जाना संभव है, क्योंकि आरंभ-परिग्रह अवैराग्य और अनुपशमका मूल है, वैराग्य और उपशमका काल है। श्रीठाणांगसूत्रमें इस आरंभ और परिग्रहके बलको बतानेके पश्चात् उससे निवृत्त होना योग्य है, यह उपदेश करनेके लिये इस भावसे द्विभंगी कही है: १. जीवको मतिज्ञानावरणीय कबतक होता है ! जबतक आरंभ और परिग्रह हो तबतक । २. जीवको श्रुतज्ञानावरणीय कबतक होता है ! जबतक आरंभ और परिग्रह हो तबतक । ३. जीवको अवधिज्ञानावरणीय कबतक होता है ! जबतक आरंभ और परिग्रह हो तबतक । ४. जीवको मनःपर्यवज्ञानावरणीय कबतक होता है ! जबतक आरंभ और परिग्रह हो तबतक । ५. जीवको केवलज्ञानावरणीय कबतक होता है ! जबतक आरंभ और परिग्रह हो तबतक । ऐसा कहकर दर्शन आदिके भेद बताकर उस बातको सत्रहबार बताई है कि वे आवरण तबतक रहते हैं जबतक आरंभ और परिग्रह होता है । इस प्रकार आरंभ-परिग्रहका बल बताकर फिर अर्थापत्तिरूपसे फिरसे उसका वहींपर कथन किया है। १. जीवको मतिज्ञान कब होता है ! आरंभ-परिग्रहसे निवृत्त होनेपर । २. जीवको श्रुतज्ञान कब होता है ! आरंभ-परिग्रहसे निवृत्त होनेपर । ३. जीवको अवधिज्ञान कब होता है ! आरंभ-परिग्रहसे निवृत्त होनेपर। ४. जीवको मनःपर्यवज्ञान कब होता है ! आरंभ-परिग्रहसे निवृत्त होनेपर । ५. जीवको केवलज्ञान कब होता है ? आरंभ-परिग्रहसे निवृत्त होनेपर । इस प्रकार सत्रह भेदोंको फिरसे कहकर, आरंभ-परिग्रहकी निवृत्तिका फल, जहाँ अन्तमें केवलज्ञान है, वहाँतक लिया है। और प्रवृत्तिके फलको केवलज्ञानतकके आवरणका हेतुरूप कहकर, उसका अत्यंत बलवानपना बताकर, जीवको उससे निवृत्त होनेका ही उपदेश किया है । फिरफिरसे ज्ञानी-पुरुषोंके वचन जीवको इस उपदेशका ही निश्चय करनेके लिये प्रेरणा करनेकी इच्छा करते हैं। फिर भी अनादि असत्संगसे उत्पन्न हुई दुष्ट इच्छा आदि भावमें मूढ़ हुआ यह जीव बोध नहीं प्राप्त करता; और उन भावोंकी निवृत्ति किये बिना अथवा निवृत्तिका प्रयत्न किये बिना ही श्रेयकी इच्छा करता है, जो कभी भी संभव नहीं हुआ, वर्तमानमें होता नहीं, और भविष्यमें होगा नहीं। ४१९ बम्बई, ज्येष्ठ सुदी १४ रवि. १९५० चित्तमें उपाधिके प्रसंगके लिये बारम्बार खेद होता है। यदि इस प्रकारका उदय इस देहमें बहुत समयतक रह्य करे तो समाधि-दशापूर्वक जो लक्ष है, वह लक्ष ऐसेका ऐसा ही अप्रधानरूपसे रखना परे, और जिसमें अत्यंत अप्रमाद-योग रखना योग्य है, उसमें प्रमाद-योग हो जाय ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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