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________________ ३८४ . भीमद् राजचन्द्र [पत्र ४१८ जो जो साधन जीवको संसारका भय दृढ़ कराते हैं उन उन साधनसंबंधी जो उपदेश कहा है, वह उपदेश-बोध है। .. __ यहाँ यह विचार होना संभव है कि उपदेश-बोधकी अपेक्षा सिद्धांत-बोधकी मुख्यता मालूम होती है, क्योंकि उपदेश-बोध भी उसीके लिये है, तो फिर यदि सिद्धांत-बोधका ही पहिलेमे अवगाहन किया हो तो वह जीवको पहिलेसे ही उन्नतिका हेतु है। परन्तु यह विचार होना मिथ्या है; क्योंकि उपदेश-बोधसे ही सिद्धांत-बोधका जन्म होता है । जिसे वैराग्य-उपशम संबंधी उपदेश-बोध नहीं हुआ, उसे बुद्धिका विपर्यास भाव रहा करता है और जबतक बुद्धिका विपर्यास भाव रहे तबतक सिद्धांतका विचार करना भी विपर्यास भावसे ही संभव होता है । जैसे चक्षुमें जितनी मलिनता रहती है, वह उतना ही पदार्थको मलिन देखती है; और यदि उसका पटल अत्यंत बलवान हो तो उसे मूल पदार्थ ही दिखाई नहीं देता; तथा जिसको चक्षुका यथावत् संपूर्ण तेज विद्यमान है, वह पदार्थको यथायोग्य देखता है । इसी प्रकार जिस जीवको गाद विपर्यास बुद्धि है, उसे तो किसी भी तरह सिद्धांत-बोध विचारमें नहीं आ सकता । परन्तु जिसकी विपर्यास बुद्धि मंद हो गई है उसे उस प्रमाणमें सिद्धांतका अवगाहन होता है; और जिसने विपर्यास बुद्धिका विशेषरूपसे क्षय किया है, ऐसे जीवको विशेषरूपसे सिद्धांतका अवगाहन होता है। गृह-कुटुम्ब परिग्रह आदि भावमें जो अहंता-ममता-है और उसकी प्राप्ति-अप्राप्तिके प्रसंगमें जो राग-द्वेष कषाय है, वही विपर्यास-बुद्धि है। और जहाँ वैराग्य-उपशम उद्भूत होता है, वहाँ अहंता-ममता तथा कषाय मंद पड़ जाते हैं वे अनुक्रमसे नाश होने योग्य हो जाते हैं । गृह-कुटुम्ब आदि भावविषयक अनासक्त बुद्धि होना वैराग्य है; और उसकी प्राप्ति-अप्राप्तिके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले कषाय-केशका मंद होना उपशम है । अर्थात् ये दो गुण विपर्यास बुद्धिको पर्यायांतर करके सदबुद्धि पैदा करते हैं, और वह सदबुद्धि जीव अजीव आदि पदार्थकी व्यवस्था जैसी मालूम होती है-इस प्रकार सिद्धांतका विचार करना योग्य है। जैसे चक्षु पटल आदि अंतरायके दूर होनेसे वह पदार्थको यथावत् देखती है, उसी तरह अहंता आदि पटलकी मंदता होनेसे जीवको ज्ञानी-पुरुषके कहे हुए सिद्धांत-भाव-आत्मभाव-विचार-चक्षुसे दिखाई देते हैं। जहाँ वैराग्य और उपशम बलवान हैं, वहाँ प्रबलतासे विवेक होता है । जहाँ वैराग्य-उपशम बलवान न हो वहाँ विवेक बलवान नहीं होता, अथवा यथावत् विवेक नहीं होता । जो सहज आत्मस्वरूप है ऐसा केवलज्ञान भी प्रथम मोहनीय कर्मके क्षयके बाद ही प्रगट होता है, और इस बातसे जो ऊपर सिद्धांत बताया है, वह स्पष्ट समझमें आ जायगा। फिर ज्ञानी-पुरुषोंकी विशेष शिक्षा वैराग्य-उपशमका बोध करनेवाली देखनेमें आती है। जिनभगवान्के आगमपर दृष्टि डालनेसे यह बात विशेष स्पष्ट जानी जा सकेगी। सिद्धांत-बोध अर्थात् जिस आगममें जीव अजीव पदार्थका विशेषरूपसे जितना कथन किया है, उसकी अपेक्षा विशेषरूपसे अति विशेषरूपसे वैराग्य और उपशमका कथन किया है, क्योंकि उसकी सिद्धि हो जानेके पचात् सहजमें ही विचारकी निर्मलता होती है, और. विचारकी निर्मलता सिद्धांतरूप कथनको सहज ही में अथवा थोरे ही परिश्रमसे अंगीकार कर सकती है-अर्थात् उसकी भी सहज ही सिद्धि होती है और
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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