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________________ पत्र ३७१, ३७२, ३७३, ३४९ विविध पत्र आदि संग्रह-२६वाँ वर्ष ३७१ बम्बई, प्र. आषाढ वदी सोम.१९४९ जिसे प्रीतिसे संसारके सेवन करनेकी स्पष्ट इच्छा होती हो, तो उस पुरुषने ज्ञानीके वचनोंको ही नहीं सुना है, अथवा उसने ज्ञानी-पुरुषका दर्शन भी नहीं किया, ऐसा तीर्थंकर कहते हैं। जिसकी कमर टूट गई है उसका प्रायः समस्त बल क्षीण हो जाता है । जिसे ज्ञानी-पुरुषके वचनरूप लकड़ीका प्रहार हुआ है, उस पुरुषमें उस प्रकारका संसारसंबंधी बल होता हैं, ऐसा तीर्थकर कहते हैं। ज्ञानी-पुरुषको देखनेके बाद भी यदि स्त्रीको देखकर राग उत्पन्न होता हो, तो ऐसा समझो कि ज्ञानी-पुरुषको देखा ही नहीं। ज्ञानी-पुरुषके वचनोंको सुननेके पश्चात् स्त्रीका सजीवन शरीर जीवनरहित रूपसे भासित हुए बिना न रहे, और धन आदि संपत्ति वास्तवमें पृथ्वीके विकाररूपसे भासमान दुए बिना न रहे। ज्ञानी-पुरुषके सिवाय उसकी आत्मा दूसरी किसी भी जगह क्षणभर भी ठहरनेके लिये इच्छा नहीं करती। · इत्यादि वचनोंका पूर्वमें ज्ञानी-पुरुष मार्गानुसारी पुरुषको बोध देते थे; जिसे जानकर-सुनकर सरल जीव उसे आत्मामें धारण करते थे। तथा प्राणत्याग जैसे प्रसंग आनेपर भी वे उन वचनोंको अप्रधान न करने योग्य मानते थे, और वैसा ही आचरण करते थे। सबसे अधिक स्मरण करने योग्य बातें तो बहुतसी हैं, फिर भी संसारमें एकदम उदासीनता होना, दूसरोंके अल्प गुणोंमें भी प्रीति होना, अपने अल्प गुणोंमें भी अत्यंत क्लेश होना, दोषके नाश करनेमें अत्यंत वीर्यका स्फुरित होना-ये बातें सत्संगमें अखंड एक शरणागतरूपसे ध्यानमें रखने योग्य हैं । जैसे बने वैसे निवृत्ति-काल, निवृत्ति-क्षेत्र, निवृत्ति-द्रव्य और निवृत्ति-भावका सेवन करना । तीर्थकर, गौतम जैसे ज्ञानी-पुरुषको भी संबोधन करते थे कि 'हे गौतम ! समयमात्र भी प्रमाद करना योग्य नहीं है। ३७२ बम्बई,प्र.आषाढ वदी१३भौम.१९४९ अनुकूलता-प्रतिकूलताके कारणमें कोई विषमता नहीं है । सत्संगके इच्छा करनेवाले पुरुषको यह क्षेत्र विषमतुल्य है । किसी किसी उपाधि-योगका अनुक्रम हमें भी रहा करता है । इन दो कारणोंकी विस्मृति करते हुए भी जो घरमें रहना है, उसमें कितनी ही प्रतिकूलतायें हैं, इसलिये हालमें तुम सब भाईयोंका विचार कुछ स्थगित करने योग्य (जैसा) है। ३७३ बम्बई, प्र. आषाढ वदी१४ बुध. १९४९ प्रायः करके प्राणी आशासे ही जीते हैं। जैसे जैसे संज्ञा विशेष होती जाती है, वैसे वैसे विशेष आशाके बख्से जीवित रहना होता है । जहाँ मात्र एक आत्मविचार और आत्मज्ञानका उद्भव
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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