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________________ पत्र ३३८] विविध पत्र आदि संग्रह-२५याँ वर्ष ३२३ जो जिनभगवान्के कहे हुए शास्त्र माने जाते हैं, उनमें कुछ बोलोंके विच्छिन्न हो जानेका कथन है, और उनमें केवलज्ञान आदि दस बोल मुख्य हैं; और उन दस बोलोंके विच्छिन्न हुए दिखानेका आशय यही बतानेका है कि इस कालमें 'सर्वथा मुक्ति नहीं होती। ये दस बोल जिसे प्राप्त हो गये हों, अथवा जिसे इनमेंका एक भी बोल प्राप्त हो गया हो तो उसे चरम-शरीरी जीव कहना योग्य है, ऐसा समझकर इस बातको विच्छेदरूप माना है। फिर भी एकांतसे ऐसा ही कहना योग्य नहीं ऐसा हमें मालूम होता है, और ऐसा ही है। क्योंकि इन बोलोंमें क्षायिक समकितका भी निषेध है, और वह चरमशरीरीके ही हो, ऐसा तो ठीक नहीं, अथवा ऐसा एकांत भी नहीं है। महाभाग्य श्रेणिकके क्षायिक समकित होनेपर भी वे चरम-शरीरी नहीं थे, इस प्रकार उन्हीं जिनभगवान्के शास्त्रोंमें कथन है। तथा जिनकल्पी साधुके विहारका व्यवच्छेद कहना श्वेताम्बरोंका ही कथन है, दिगम्बरोंका कथन नहीं । ' सर्वथा मोक्ष होना' इस कालमें संभव नहीं है, ऐसा दोनोंका ही अभिप्राय है; और वह भी अत्यंत एकांतरूपसे नहीं कहा जा सकता । हम मानते हैं कि इस कालमें चरम-शरीरीपना नहीं है, परन्तु यदि अशरीरीभावरूपसे आत्म-स्थिति है, तो वह भावनयसे चरम-शरीरीपना ही नहीं किन्तु सिद्धपना भी है । और वह अशरीरी-भाव इस कालमें नहीं है-यदि यहाँ ऐसा कहें तो यह यह कहनेके तुल्य है कि हम ही स्वयं मौजूद नहीं हैं । विशेष क्या कहें ! यह सर्वथा एकांत नहीं है। कदाचित् यह एकांत हो भी तो वह, जिसने आगमको कहा है, उसी आशयी सत्पुरुषद्वारा समझने योग्य है, और यही आत्मस्थितिका उपाय है। (२) पुनर्जन्म है-अवश्य है, इसके लिये मैं अनुभवसे 'हाँ' कहनेमें अचल हूँ। (३) परम प्रेमरूप भक्तिके बिना ज्ञान शून्य ही है । जो अटका है वह केवल योग्यताकी कमीके ही कारण अटका हुआ है। ज्ञानीके पाससे ज्ञानकी इच्छा करनेकी अपेक्षा बोध-स्वरूप समझकर भक्तिकी इच्छा करना, यह परम फलदायक है । जिसपर ईश्वर कृपा करे उसे कलियुगमें उस पदार्थकी प्राप्ति हो । यह महाकठिन है। ३३८ बम्बई, आसोज वदी ६, १९४८ (१) यहाँ आत्माकारता रहती है। आत्माके आत्म-स्वरूपभावसे परिणामके होनेको आत्माकारता कहते हैं। (२) जो कुछ होता है उसे होने देना। न उदासीन होना । न अनुघमी होना। न परमात्मासे ही इच्छा करनी, और न व्याकुल होना । यदि अहंभाव रुकावट डालता हो तो जितना बने उसको रोकना; और ऐसा होनेपर भी यदि वह दूर न होता हो तो उसे ईश्वरके लिये अर्पण कर देना। परन्तु दीनता न आने देना। आगे क्या होगा, इसका विचार नहीं करना, और जो हो उसे करते रहना। अधिक उधेड़-बुन करनेका प्रयत्न नहीं करना । अल्प भी भय नहीं रखना । जो कुछ करनेका अभ्यास हो गया है उसे विस्मरण किये रहना-तो ही ईश्वर प्रसन्न होगा-तो ही परमभक्ति पानेका फल मिलेगा-तो ही हमारा और तुम्हारा संयोग हुआ योग्य है ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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