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________________ ३२२ - श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३३७ नहीं भी होता, परन्तु जिसकी आत्मामें पूर्ण शुद्धता रहती है, वह पुरुष तो निश्चयसे उस ज्ञानको जानता है-भवांतरको जानता है । आत्मा नित्य है, अनुभवरूप है, वस्तु है-इन सब प्रकारोंके अत्यंतरूपसे दृढ़ होनेके लिये शास्त्रमें वे प्रसंग कहे गये हैं। यदि किसीको भवांतरका स्पष्ट ज्ञान न होता हो तो यह यह कहनेके बराबर है कि किसीको आत्माका स्पष्ट ज्ञान भी नहीं होता; परन्तु ऐसा तो है नहीं । आत्माका स्पष्ट ज्ञान तो होता है, और भवांतर भी स्पष्ट मालूम होता है । अपने तथा परके भव जाननेके ज्ञानमें किसी भी प्रकारका विसंवाद नहीं है। तीर्थकरको मिक्षाके लिये जाते समय प्रत्येक स्थानपर सुवर्ण-वृष्टि इत्यादि हो ही हो-ऐसा शास्त्रके कहनेका अर्थ नहीं समझना चाहिये। अथवा शास्त्रमें कहे हुए वाक्योंका यदि उस प्रकारका अर्थ होता हो तो वह सापेक्ष ही है। यह वाक्य लोक-भाषाका ही समझना चाहिये। जैसे यदि किसीके घर किसी सज्जन पुरुषका आगमन हो तो वह कहता है कि 'आज अमृतका मेघ बरसा'; जैसे उसका यह कहना सापेक्ष है-यथार्थ है, परन्तु वह शब्दके भावार्थसे ही यथार्थ है, शब्दके मूल अर्थमें यथार्थ नहीं है । इसी तरह तीर्थंकर आदिकी भिक्षाके विषयमें भी है। फिर भी ऐसा ही मानना योग्य है कि आत्मस्वरूपमें पूर्ण ऐसे पुरुषके प्रभावके बलसे यह होना अत्यंत संभवित है। ऐसा कहनेका प्रयोजन नहीं है कि सर्वत्र ही ऐसा हुआ है, परन्तु कहनेका अभिप्राय यह है कि ऐसा होना संभव है-ऐसा होना योग्य है । जहाँ पूर्ण आत्मस्वरूप है, वहाँ सर्व-महत्प्रभाव-योग आश्रितरूपसे रहता है, यह निश्चयात्मक बात है-निःसन्देह अंगीकार करने योग्य बात है। जहाँ पूर्ण आत्मस्वरूप रहता है वहाँ यदि सर्व-महत्-प्रभाव-योग न रहता हो तो फिर वह दूसरी कौनसी जगह रहे ! यह विचारने योग्य है । उस प्रकारका दूसरा तो कोई स्थान होना संभव नहीं, तो फिर सर्वमहत्-प्रभाव-योगका अभाव ही होगा। परन्तु जब पूर्ण आत्मस्वरूपका प्राप्त होना भी अभावरूप नहीं है, तो फिर महत् प्रभाव-योगका अभाव तो कहाँसे हो सकता है ? और यदि कदाचित् ऐसा कहा जाय कि आत्मस्वरूपकी पूर्ण प्राप्ति होना तो योग्य है, किन्तु महत् प्रभाव-योगकी प्राप्ति होना योग्य नहीं, तो यह कहना एक विसंवाद पैदा करनेके सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता । क्योंकि यह कहनेवाला शुद्ध आत्मस्वरूपके महत्पनेसे अत्यंत हीन ऐसे प्रभाव-योगको महान् समझता है-अंगीकार करता है और यह ऐसा सूचित करता है कि वह वक्ता आत्मस्वरूपका जाननेवाला नहीं है। उस आत्मस्वरूपसे कोई भी महान् नहीं है । जो प्रभाव-योग पूर्ण आत्मस्वरूपको भी प्राप्त न हो । इस प्रकारका इस सृष्टिमें कोई प्रभाव-योग उत्पन्न हुआ नहीं, वर्तमानमें है नहीं, और आगे उत्पन्न होगा नहीं परन्तु इस प्रभाव-योगमें आत्मस्वरूपको कोई प्रवृत्ति कर्तव्य नहीं है, यह बात तो अवश्य है। और यदि उसे उस प्रभाव-योगमें कोई कर्त्तव्य मालूम होता है तो वह पुरुष आत्मस्वरूपके अत्यंत अज्ञानमें ही रहता है, ऐसा मानते हैं। कहनेका अभिप्राय यह है कि आत्मरूप महाभाग्य तीर्थकरमें सब प्रकारका प्रभावयोग होना योग्य है-होता है। परन्तु उसके एक अंशका भी प्रकट करना उन्हें योग्य नहीं । किसी स्वाभाविक पुण्यके प्रभावसे सुवर्ण-वृष्टि इत्यादि हो, ऐसा कहना असंभव नहीं, और वह तीर्थकरपदको बाधाकारक भी नहीं है । जो तीर्थकर हैं वे आत्मस्वरूपके सिवाय कोई अन्य प्रभाव आदि नहीं करते, और जो करते हैं वे आत्मरूप तीर्थकर कहे जाने योग्य नहीं, ऐसा मानते हैं, और ऐसा ही है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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