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________________ रायचंद माईके संस्मरण पाखंड निम ही नहीं सकता। सत्यके पास असत्य नहीं निभ सकता। अहिंसाके सानिध्यमें हिंसा बंद हो जाती है। जहां सरलता प्रकाशित होती है वहाँ छलरूपी अंधकार नष्ट हो जाता है। ज्ञानवान और धर्मवान यदि कपटीको देखे तो उसे फौरन पहिचान लेता है, और उसका हृदय दयासे आर्द्र हो जाता है। जिसने आत्माको प्रत्यक्ष देख लिया है, वह दूसरेको पहिचाने बिना कैसे रह सकता है ! कविके संबंध यह नियम हमेशा ठीक पड़ता था, यह मैं नहीं कह सकता। कोई कोई धर्मके नामपर उन्हें ठग भी लेते थे। ऐसे उदाहरण नियमकी अपूर्णता सिद्ध नहीं करते, परन्तु ये शुद्ध ज्ञानकी ही दुर्लभता सिद्ध करते है। इस तरहके अपवाद होते हुए भी व्यवहारकुशलता और धर्मपरायणताका सुंदर मेल जितना मैंने कविमें देखा है उतना किसी दूसरेमें देखने में नहीं आया। प्रकरण पाँचवाँ धर्म रायचन्द भाईके धर्मका विचार करनेसे पहिले यह जानना आवश्यक है कि धर्मका उन्होंने क्या स्वरूप समझाया था। ___ धर्मका अर्थ मत-मतान्तर नहीं। धर्मका अर्थ शाखोंके नामसे कही जानेवाली पुस्तकोंका पढ़ जाना, कंठस्थ कर लेना, अथवा उनमें जो कुछ कहा है, उसे मानना भी नहीं है। धर्म आत्माका गुण है और वह मनुष्य जातिमें छश्य अथवा अश्यरूपसे मौजूद है। धर्मसे हम मनुष्य-जीवनका कर्त्तव्य समझ सकते हैं। धर्मद्वारा हम दूसरे जीवोंकी साथ अपना सच्चा संबंध पहचान सकते हैं। यह स्पष्ट है कि जबतक हम अपनेको न पहचान लें, तबतक यह सब कभी भी नहीं हो सकता। इसलिये धर्म वह साधन है, जिसके द्वारा हम अपने आपको स्वयं पहिचान सकते हैं। __ यह साधन हमें जहाँ कहीं मिले, वहीसे प्राप्त करना चाहिये। फिर भले ही वह भारतवर्षमें मिले, चाहे यूरोपसे आये या अरबस्तानसे आये । इन साधनोंका सामान्य स्वरूप समस्त धर्मशास्त्रोंमें एक ही सा है। इस बातको वह कह सकता है जिसने भिन्न भिन्न शाखोंका अभ्यास किया है। ऐसा कोई भी शान नहीं कहता कि असत्य बोलना चाहिये, अथवा असत्य आचरण करना चाहिये । हिंसा. करना किसी भी शास्त्र में नहीं बताया। समस्त शाखोंका दोहन करते हुए शंकराचार्यने कहा है। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या । उसी बातको कुरान शरीफमें दूसरी तरह कहा है कि ईश्वर एक ही है और वही है, उसके बिना और दूसरा कुछ नहीं। बाइबिल में कहा है कि मैं और मेरा पिता एक ही हैं। ये सब एक ही वस्तुके रूपांतर है । परन्तु इस एक ही सत्यके स्पष्ट करनेमें अपूर्ण मनुष्योंने अपने भिन्न भिन्न दृष्टि-बिन्दुओंको काममें लाकर हमारे लिये मोहजाल रच दिया है। उसमेंसे हमें बाहर निकलना है। हम अपूर्ण हैं और अपनेसे कम अपूर्णकी मदद लेकर आगे बढ़ते हैं और अन्तमें न जाने अमुक हदतक जाकर ऐसा मान लेते हैं कि आगे रास्ता ही नहीं है, परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है । अमुक हदके बाद शाम मदद नहीं करते, परन्तु अनुभव मदद करता है। इसलिये रायचंद भाईने कहा है: ए पद श्रीसर्वले दीखें ध्यानमां, कही शक्या नहीं ते पद श्रीभगवंत जो एह परमपदप्रासिनुं करें ध्यान में, गजावगर पण हाल मनोरथ रूप जो
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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