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________________ प्रस्तावना - अन्य क्रिया करना हो तो उसमें भी पूर्ण एकाग्रता होनी ही चाहिये । अंतरंगमें आत्मचिन्तन तो मुमुक्षुमें उसके श्वासकी तरह सतत चलना ही चाहिये । उससे वह एक क्षणभर भी वंचित नहीं रहता। परन्तु इस तरह आत्मचिन्तन करते हुए भी जो कुछ वह बाह्य कार्य करता हो वह उसमें ही तन्मय रहता है। मैं यह नहीं कहना चाहता कि कवि ऐसा न करते थे। ऊपर मैं कह चुका हूँ कि अपने व्यापारमें वे पूरी सावधानी रखते थे। ऐसा होनेपर भी मेरे ऊपर ऐसी छाप ज़रूर पड़ी है कि कविने अपने शरीरसे आवश्यकतासे अधिक काम लिया है । यह योगकी अपू. र्णता तो नहीं हो सकती! यद्यपि कर्तव्य करते हुए शरीरतक भी समर्पण कर देना यह नीति है, परन्तु शक्तिसे अधिक बोझ उठाकर उसे कर्तव्य समझना यह राग है । ऐसा अत्यंत सूक्ष्म राग कविमें था, यह मुझे अनुभव हुआ है। __बहुत बार परमार्थदृष्टिसे मनुष्य शक्तिसे अधिक काम लेता है और बादमें उसे पूरा करनेमें उसे कष्ट सहना पड़ता है। इसे हम गुण समझते हैं और इसकी प्रशंसा करते हैं। परन्तु परमार्थ अर्थात् धर्मदृष्टिसे देखनेसे इस तरह किये ढुंए काममें सूक्ष्म मूर्छाका होना बहुत संभव है। यदि हम इस जगतमें केवल निमित्तमात्र ही हैं, यदि यह शरीर हमें भाडे मिला है, और उस मार्गसे हमें तुरंत मोक्ष-साधन करना चाहिये, यही परम कर्तव्य है, तो इस मार्गमें जो विघ्न आते हों उनका त्याग अवश्य ही करना चाहिये, यही पारमार्थिक दृष्टि है दूसरी नहीं। ___ जो दलीलें मैंने ऊपर दी हैं, उन्हें ही किसी दूसरे प्रकारसे रायचंद भाई अपनी चमत्कारिक भाषामें मुझे सुना गये थे । ऐसा होनेपर भी उन्होंने ऐसी कैसी उपाधियाँ उठाई कि जिसके फलस्वरूप उन्हें सख्त बीमारी भोगनी पड़ी ! रायचंद भाईको भी परोपकारके कारण मोहने क्षणभरके लिये घेर लिया था, यदि मेरी यह मान्यता ठीक हो तो ' प्रकृति यांति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ' यह श्लोकार्घ यहाँ ठीक बैठता है; और इसका अर्थ भी इतना ही है। कोई इच्छापूर्वक बर्ताव करनेके लिये उपर्युक्त कृष्ण-वचनका उपयोग करते हैं, परन्तु वह तो सर्वथा दुरुपयोग है। रायचंद भाईकी प्रकृति उन्हें बलात्कार गहरे पानीमें ले गई। ऐसे कार्यको दोषरूपसे भी लगभग सम्पूर्ण आत्माओंमें ही माना जा सकता है। हम सामान्य मनुष्य तो परोकारी कार्यके पीछे अवश्य पागल बन जाते हैं, तभी उसे कदाचित् पूरा कर पाते हैं । इस विषयको इतना ही लिखकर समाप्त करते हैं। ____ यह भी मान्यता देखी जाती है कि धार्मिक मनुष्य इतने भोले होते हैं कि उन्हें सब कोई ठग सकता है। उन्हें दुनियाकी बातोंकी कुछ भी खबर नहीं पड़ती। यदि यह बात ठीक हो तो कृष्णचन्द्र और रामचन्द्र दोनों अवतारोंको केवल संसारी मनुष्योंमें ही गिनना चाहिये । कवि कहते थे कि जिसे शुद्ध ज्ञान है उसका ठगा जाना असंभव होना चाहिये । मनुष्य धार्मिक अर्थात् नीतिमान् होनेपर भी कदाचित् ज्ञानी न हो, परन्तु मोक्षके ‘लिये नीति और अनुभवज्ञानका मुसंगम होना चाहिये। जिसे अनुभवज्ञान हो गया है, उसके पास
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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