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________________ वर्ष २५वाँ २५७ ववाणीआ, कार्तिक सुदी १९४८ यथायोग्य वंदन स्वीकार करना । समागम होनेपर दो-चार कारण मन खोलकर आपसे बात नहीं करने देते । अनंतकालकी वृत्ति, समागमी लोगोंकी वृत्ति और लोक-लज्जा ही प्रायः इस कारणका मूल होता है। ऐसी दशा प्रायः मेरी नहीं रहती कि ऐसे कारणोंसे किसी भी प्राणीके ऊपर कटाक्ष आये; परन्तु हालमें मेरी दशा कोई भी लोकोत्तर बात करते हुए रुक जाती है; अर्थात् मनका कुछ पता नहीं चलता। परमार्थ-मौन ' नामका कर्म हालमें भी उदयमें है, इससे अनेक प्रकारका मौन भी अंगीकार कर रक्खा है; अर्थात् अधिकतर परमार्थसंबंधी बातचीत नहीं करते। ऐसा ही उदय-काल है । कचित् साधारण मार्गसंबंधी बातचीत करते हैं; अन्यथा इस विषयमें वाणीद्वारा, तथा परिचयद्वारा मौन और शून्यता ही ग्रहण कर रखी है। जबतक योग्य समागम होकर चित्त ज्ञानी पुरुषका स्वरूप नहीं जानता, तबतक ऊपर कहे हुए तीन कारण सर्वथा दूर नहीं होते, और तबतक 'सत्' का यथार्थ कारण भी प्राप्त नहीं होता। ऐसी परिस्थिति होनेका कारण, तुम्हें मेरा समागम होनेपर भी बहुत व्यावहारिक और लोक-लजायुक्त बात करनेका प्रसंग रहेगा; और उससे मुझे बहुत अरुचि है; आप किसीके भी साथ मेरा समागम होनेके पश्चात् इस प्रकारकी बातोंमें गुंथ जॉय, इसे मैंने योग्य नहीं समझा । २५८ आनन्द, मंगसिर सुदीगुरु. १९४८ (ऐसा जो ) परमसत्य उसका हम ध्यान करते हैं भगवान्को सब कुछ समर्पण किये बिना इस कालमें जीवका देहाभिमान मिटना संभव नहीं है, इसलिये हम सनातनधर्मरूप परमसत्यका निरन्तर ही ध्यान करते हैं। जो सत्यका ध्यान करता है, वह सत्य हो जाता है। २५९ बम्बई, मंगसिर सुदी १४ भौम. १९४८ श्रीसहजसमाधि यहाँ समाधि है; स्मृति रहती है; तथापि निरुपायता है। असंग-वृत्ति होनेसे अणुमात्र भी उपाधि सहन हो सके, ऐसी दशा नहीं है, तो भी सहन करते हैं। - विचार करके वस्तुको फिर फिरसे समझना; मनसे किये हुए निश्चयको साक्षात् निश्चय नहीं मानना।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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