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________________ पत्र २५५, विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष २७३ इस लक्षके सन्मुख हुए बिना जप, तप, ध्यान अथवा दान किसीकी भी यथायोग्य सिद्धि नहीं है, और जबतक यह नहीं तबतक ध्यान आदि कुछ भी कामके नहीं हैं। इसलिये इनमेंसे जो जो साधन हो सकते हों उन सबको, एकलक्षकी-जिसका उल्लेख हमने ऊपर किया है-प्राप्ति होनेके लिये, करना चाहिये । जप, तप आदि कुछ निषेध करने योग्य नहीं; तथापि वे सब एकलक्षकी प्राप्तिके लिये ही हैं, और इस लक्षके बिना जीवको सम्यक्त्व-सिद्धि नहीं होती। अधिक क्या कहें ! जितना ऊपर कहा है उतना ही समझनेके लिये समस्त शास्त्र रचे गये हैं। २५५ ववाणीआ, कार्तिक सुदी ८, १९४८ किसी भी प्रकारका दर्शन हो, उसे महान् पुरुषोंने सम्यग्ज्ञान माना है--ऐसा नहीं समझना चाहिये । पदार्थके यथार्थ-बोध प्राप्त होनेको ही सम्यग्ज्ञान माना गया है । जिनका एक धर्म ही निवास है, वे अभी उस भूमिकामें नहीं आये । दर्शन आदिकी अपेक्षा यथार्थ-बोध श्रेष्ठ पदार्थ है । इस बातके कहनेका यही अभिप्राय है कि किसी भी तरहकी कल्पनासे तुम कोई भी निर्णय करते हुए निवृत्त होओ। ऊपर जो कल्पना शब्दका प्रयोग किया गया है वह इस अर्थमें है कि "हमारे तुम्हें उस समागमकी सम्मति देनेसे समागमी लोग वस्तु-ज्ञानके संबंधमें जो कुछ प्ररूपण करते हैं, अथवा बोध करते. हैं, वैसी ही हमारी भी मान्यता है; अर्थात् जिसे हम सत् कहते हैं, उसे भी हम हालमें मौन रहनेके कारण उनके समागमसे उस ज्ञानका बोध तुम्हें प्राप्त करनेकी इच्छा करते हैं।" २५६ ववाणीआ, कार्तिक सुदी ८ सोम. १९४८ यदि जगत् आत्मरूप माननेमें आये; और जो कुछ हुआ करे वह ठीक ही माननेमें आये; दूसरेके दोष देखनेमें न आयें; अपने गुणोंकी उत्कृष्टता सहन करनेमें आये; तो ही इस संसारमें रहना योग्य है; अन्य प्रकारसे नहीं ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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