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________________ पत्र २४२, २४३] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष २४२ ववाणीआ,, आसोज सुदी १९४७ हम परदेशी पंखी साधु, और देशके नाहि रे. एक प्रश्नके सिवाय बाकीके प्रश्नोंका उत्तर जान-बूझकर नहीं लिख सका। "काल क्या खाता है?" इसका उत्तर तीन प्रकारसे लिखता हूँ। सामान्य उपदेशमें काल क्या खाता है, इसका उत्तर यह है कि वह प्राणी मात्रकी आयु खाता है । व्यवहारनयसे काल 'पुराना' खाता है । निश्चयनयसे काल पदार्थ मात्रका रूपान्तर करता हैपर्यायान्तर करता है। अन्तके दो उत्तर अधिक विचार करनेसे ठीक बैठ सकेंगे। 'व्यवहारनयसे काल पुराना खाता है !' ऐसा जो लिखा है, उसे नीचे विशेष स्पष्ट किया है: "काल पुराना खाता है "-पुराना किसे कहते हैं? जिस चीजको उत्पन्न हुए एक समय हो गया, वही दूसरे समयमें पुरानी कही जाती है। (ज्ञानीकी अपेक्षासे) उस चीजको तीसरे समय, चौथे समय, इस तरह संख्यात समय, असंख्यात समय, अनंत समय काल बदला ही करता है । वह दूसरे समयमें जैसी होती है वैसी तीसरे समयमें नहीं होती; अर्थात् दूसरे समयमें पदार्थका जो स्वरूप था, उसे खाकर तीसरे समयमें कालने पदार्थको कुछ दूसरा ही रूप प्रदान कर दिया; अर्थात् वह पुरानेको खा गया। पदार्थ पहिले समयमें उत्पन्न हुआ, और उसी समय काल उसको खा जाय, ऐसा व्यवहारनयसे बनना संभव नहीं है। पहिले समयमें पदार्थका नयापन गिना जायगा, परन्तु उस समय काल उसे खा नहीं जाता, किन्तु दूसरे समयमें बदल देता है, इसलिये ऐसा कहा है कि वह पुरानेको खाता है। निश्चयनयसे यावन्मात्र पदार्थ रूपान्तरित होते ही हैं। कोई भी पदार्थ किसी भी कालमें कभी भी सर्वथा नाश नहीं होता, ऐसा सिद्धांत है; और यदि पदार्थ सर्वथा नाश हो जाया करता तो आज कुछ भी न रहता; इसीलिये ऐसा कहा है कि काल खाता नहीं, परन्तु रूपान्तर करता है । इन तीन प्रकारके उत्तरोंमें पहिला उत्तर ऐसा है जो आसानीसे सबको समझमें आ सकता है। यहाँ भी दशाके प्रमाणमें बाह्य उपाधि विशेष है। आपने इस बार कुछ थोडेसे व्यावहारिक ( यद्यपि शास्त्रसंबंधी) प्रश्न लिखे थे, परन्तु हालमें ऐसे बाँचनमें भी चित्त पूरी तरह नहीं रहता, फिर उनका उत्तर कैसे लिखा जा सके ! २४३ ववाणीआ, आसोज वदी १ रवि. १९४७ यह तो आप जानते ही हो कि पूर्वापर अविरुद्ध भगवत्संबंधी ज्ञानके प्रगट करनेके लिये जबतक उसकी इच्छा नहीं, तबतक किसीका अधिक समागम नहीं किया जाता । . जबतक हम अमिनरूप हरिपदको अपनेमें न मानें तबतक हम प्रगट-मार्ग नहीं कहेंगे।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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