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________________ २६८ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र २४१ २४१ ववाणीआ, आसोज सुदी ७ शुक्र. १९४७ अपनेसे अपने आपको अपूर्वकी प्राप्ति होना दुर्लभ है। जिससे यह प्राप्त होता है उसके स्वरूपकी पहिचान होना दुर्लभ है, और जीवकी भूल भी यही है. इस पत्र लिखे हुए प्रश्नोंका संक्षेपमें नीचे उत्तर लिखा है:--- १-२-३ ये तीनों प्रश्न स्मृतिमें होंगे । इनमें यह कहा गया है :"१. ठाणांगमें जो आठ वादी कहे गये हैं, उनमें आप और हम कौनसे वादमें गर्मित होते हैं ! २. इन आठ वादोंके अतिरिक्त कोई जुदा मार्ग ग्रहण करने योग्य हो तो उसे जाननेकी पूर्ण आकांक्षा है। ३. अथवा आठों वादियोंका एकीकरण करना, यही मार्ग है, या कोई दूसरा ? अथवा क्या उन आठों वादियोंके एकीकरणमें कुछ न्यूनाधिकता करके मार्ग ग्रहण करना योग्य है ? और है तो वह क्या है ?" इस संबंधमें यह जानना चाहिये कि इन आठ वादियोंके अतिरिक्त दूसरे दर्शनोंसंप्रदायोंमें मार्ग कुछ (अन्वय) संबंधित रहता है, नहीं तो प्रायः (व्यतिरिक्त) जुदा ही रहता है। वे वादी, दर्शन, और सम्प्रदाय-ये सब किसी रीतिसे उसकी प्राप्तिमें कारणरूप होते हैं, परन्तु सम्यग्ज्ञानीके बिना दूसरे जीवोंको तो वे बंधन भी होते हैं। जिसे मार्गकी इच्छा उत्पन्न हुई है, उसे इन सबोंके साधारण ज्ञानको बाँचना और विचारना चाहिये और बाकीमें मध्यस्थ रहना ही योग्य है। यहाँ 'साधरण ज्ञान' का अर्थ ऐसा ज्ञान करना चाहिये कि जिस ज्ञानके सभी शास्त्रोंमें वर्णन किये जानेपर भी जिसमें अधिक भिन्नता न आई हो। ____“जिस समय तीर्थकर आकर गर्भमें उत्पन्न होते हैं अथवा जन्म लेते हैं, उस समय अथवा उस समयके पश्चात् क्या देवता लोग जान लेते हैं कि ये तीर्थंकर हैं ? और यदि जान लेते हैं तो किस तरह जानते हैं !"-इसका उत्तर इस तरह है कि जिसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो गया है ऐसे देव अवधिज्ञानद्वारा तीर्थकरको जानते हैं; सब नहीं जानते । जिन प्रकृतियोंके नाश हो जानेसे जन्मसे तीर्थंकर अवधिज्ञानसे युक्त होते हैं, उन प्रकृतियोंके उनमें दिखाई न देनेसे वे सम्यग्ज्ञानी देव तीर्थंकरको पहिचान सकते हैं। मुमुक्षुताके सन्मुख होनेकी इच्छा करनेवाले तुम दोनोंको यथायोग्य प्रणाम करता हूँ। हालमें अधिकतर परमार्थ-मौनसे प्रवृत्ति करनेका कर्म उदयमें रहता है, और इस कारण उसी तरह प्रवृत्ति करनेमें काल व्यतीत होता है, और इसी कारणसे आपके प्रश्नोंका संक्षेपमें ही उत्तर दिया है। शांतमूर्ति सौभाग्य हालमें मोरबी है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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