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________________ २५१ पत्र २१०, २११] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष तथापि यदि व्यवहार-प्रसंगमें हरिकी माया हमको नहीं तो सामनेवालेको भी एकके बदले दूसरा भाव पैदा कर दे तो लाचारी है; परन्तु इसके लिये भी हमें तो शोक ही होगा। हम तो हरिको सर्वशक्तिमान मानते हैं, और उन्हींको सब कुछ सौंप रक्खा है। ____ अधिक क्या लिखें ! परमानन्द हरिको एक क्षणभर भी न भूलना, यही हमारी सर्वकृति, वृत्ति और लिखनेका हेतु है। २१० बम्बई, वैशाख वदी ८ रवि. १९४७ ॐ नमः प्रबोधशतक भेजा है, वह पहुँचा होगा । इस शतकका तुम सबोंको श्रवण, मनन और निदिध्यासन करना चाहिये । सुननेवालेको सबसे पहिले यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि इस पुस्तकको हमने वेदान्तकी श्रद्धा करनेके लिये नहीं भेजी; इसे किसी दूसरे ही कारणसे भेजी है, और वह कारण बहुत करके विशेष विचार करनेपर तुम जान सकोगे। हालमें तुम्हारे पास कोई ऐसा बोध करनेवाला साधन न होनेके कारण यह शतक ठीक साधन है, ऐसा समझकर इसे भेजा है । इसमेंसे तुम्हें क्या जानना चाहिये, इसका विचार तुम स्वयं कर लेना। किसीको यह सुनकर हमारे विषयमें ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि इस पुस्तकमें जो कुछ मत बताया गया है, वही हमारा भी मत है। केवल चित्तकी स्थिरताके लिये इस पुस्तकके विचार बहुत उपयोगी हैं और इसीलिये इसे भेजा है, ऐसा समझना । २११ बम्बई, ज्येष्ठ सुदी ७ शनि. १९४७ नमः कराल काल होनेसे जीवको जहाँ अपनी वृत्ति लगानी चाहिये वहाँ वह नहीं लगा सकता । इस कालमें प्रायः सतधर्मका तो लोप ही रहता है, इसीलिये इस कालको कलियुग कहा गया है। सधर्मका योग सत्पुरुषके बिना नहीं होता, क्योंकि असत्में सत् नहीं होता। प्रायः सत्पुरुषके दर्शनकी और योगकी इस कालमें अप्राप्ति ही दिखाई देती है। जब यह दशा है तो सत्धर्मरूप समाधि मुमुक्षु पुरुषको कहाँसे प्राप्त हो सकती है? और अमुक काल व्यतीत होनेपर भी जब ऐसी समाधि प्राप्त नहीं होती तो मुमुक्षुता भी कैसे रह सकती है ! प्रायः ऐसा होता है कि जीव जैसे परिचयमें रहता है, उसी परिचयरूप अपनेको मानने लगता है । इस बातका प्रत्यक्ष अनुभव भी होता है कि अनार्य कुलमें परिचय रखनेवाला जीव अनार्यतामें ही अपनी दृढ़ता रखता है। और आर्यत्वमें मति नहीं करता। इसलिये महान् पुरुषोंने और उनके आधारसे हमने ऐसा दृढ़ निश्चय किया है कि जीवके लिये सत्संग ही मोक्षका परम साधन है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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