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________________ २५०. श्रीमद् राजवन्द्र [पत्र २०९ चित्तकी अव्यवस्थाके कारण मुहूर्त मात्रमें हो सकनेवाले कार्यके विचार विचारमें ही पन्द्रह दिन निकल जाते हैं और कभी तो उस कार्यके बिना किये ही रह जाना पड़ता है। सभी प्रसंगोंमें यदि ऐसा ही होता रहे तो भी हानि नहीं मानी; परन्तु आपको कुछ कुछ ज्ञान-वार्ता कही जाय तो विशेष आनन्द रहता है; और इस संबंधमें चित्तको कुछ व्यवस्थित करनेकी इच्छा रहा करती है। फिर भी उस स्थितिमें अभी हाल हीमें प्रवेश नहीं किया जा सकता, ऐसी चित्तकी निरंकुश दशा हो रही है; और उस निरंकुशताकी प्राप्तिमें हरिकी परम कृपा ही कारणीभूत है, ऐसा हम मानते हैं; और उस निरंकुशताको पूर्ण किये बिना चित्त यथोचित्त समाधियुक्त नहीं होता, ऐसा लगता है। इस समय तो सब-कुछ अच्छा लगता है, और कुछ भी अच्छा नहीं लगता, ऐसी स्थिति हो रही है। जब सबकुछ मात्र अच्छा ही लगा करेगा तभी निरंकुशताकी पूर्णता होगी। इसीका अपर नाम पूर्ण कामना हैजहाँ सर्वत्र हरि ही हरि स्पष्ट दिखाई देते हैं । इस समय वे कुछ अस्पष्ट जैसे दीखते हैं, परन्तु वे हैं स्पष्ट, ऐसा अनुभव है। जो रस जगत्का जीवन है, उस रसका अनुभव होनेके बाद हरिके प्रति अतिशय लौ लगी है। और उसका परिणाम ऐसा आयेगा कि हम जहाँ जिस रूपमें हरि-दर्शन करनेकी इच्छा करेंगे, उसी रूपमें हरि दर्शन देंगे, ऐसा भविष्यकाल ईश्चरेच्छाके कारण लिखा है। हम अपने अंतरंग विचारको लिख सकनेमें अतिशय अशक्त हो गये हैं। इस कारण समागमकी इच्छा करते हैं। परन्तु ईश्वरेच्छा अभी ऐसा करनेमें असहमत मालूम होती है, इसलिये वियोगमें ही रहते हैं। उस पूर्णस्वरूप हरिमें जिसकी परम भक्ति है, ऐसा कोई भी पुरुष हालमें दिखाई नहीं देता, इसका क्या कारण है? तथा ऐसी अति तीव्र अथवा तीव्र मुमुक्षुता भी किसीमें दिखाई नहीं देती, इसका क्या कारण होना चाहिये ! यदि कहीं तीव्र मुमुक्षुता दिखाई भी देती होगी तो वहाँ अनन्तगुण-गंभीर ज्ञानावतार पुरुषका लक्ष क्यों नहीं देखनेमें आता, इसके कारणके संबंधमें जो आपको लगे सो लिखना । दूसरी बड़ी आश्चर्यकारक बात तो यह है कि आप जैसोंको सम्यग्ज्ञानके बीजकी-पराभक्तिके मूलकी-प्राप्ति होनेपर भी उसके बादका भेद क्यों नहीं प्राप्त होता ! तथा हरिविषयक अखंड लयरूप वैराग्य जितना चाहिये उतना क्यों वृद्धिंगत नहीं होता ! इसका जो कुछ भी कारण आपके ध्यानमें आता हो सो लिखना। हमारे चित्तकी ऐसी अव्यवस्था हो जानेके कारण किसी भी काममें जैसा चाहिये वैसा उपयोग नहीं रहता, स्मृति नहीं रहती, अथवा खबर ही नहीं रहती; उसके लिये क्या करें ! क्या करें इससे हमारा आशय यह है कि व्यवहारमें रहनेपर भी ऐसी सर्वोत्तम दशा दूसरे किसीको दुःखरूप न हो, ऐसा हम क्या करें ! अभी तो हमारे आचार ऐसे हैं कि कभी कभी उनसे किसीको दुःख पहुँच जाता है। हम दूसरे किसीको भी आनन्दरूप लगे, इसकी हरिको चिन्ता रहती है; इसलिये वे इसे करेंगे । हमारा काम तो उस दशाकी पूर्णता प्राप्त करनेका है, ऐसा मानते हैं; तथा दूसरे किसीको भी संतापरूप होनेका तो स्वममें भी विचार नहीं है। हम तो सबके दास हैं, तो फिर हमें दुःखरूप कौन मानेगा !
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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