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________________ प्रस्तावना आफ्रिकामें मैं कुछ क्रिश्चियन सज्जनोंके विशेष संबंधमें आया। उनका जीवन स्वच्छ था। वे चुस्त धर्मात्मा थे । अन्य धर्मियोंको क्रिश्चियन होनेके लिये समझाना उनका मुख्य व्यवसाय था । यद्यपि मेरा और उनका संबंध व्यावहारिक कार्यको लेकर ही हुआ था तो भी उन्होंने मेरी आत्माके कल्याणके लिये चिंता करना शुरू कर दिया। उस समय मैं अपना एक ही कर्तव्य समझ सका कि जबतक मैं हिन्दूधर्मके रहस्यको पूरी तौरसे न जान लें और उससे मेरी आत्माको असंतोष न हो जाय, तबतक मुझे अपना कुलधर्म कभी न छोड़ना चाहिये । इसलिये मैंने हिन्दूधर्म और अन्य धर्मोकी पुस्तकें पढ़ना शुरू कर दी। क्रिश्चियन और मुसलमानी पुस्तकें पदीं । विलायतके अंग्रेज़ मित्रोंके साथ पत्रव्यवहार किया। उनके समक्ष अपनी शंकायें रक्खीं । तथा हिंदुस्तानमें जिनके ऊपर मुझे कुछ भी श्रद्धा थी उनसे पत्र. व्यवहार किया । उनमें रायचंद भाई मुख्य थे। उनके साथ तो मेरा अच्छा संबंध हो चुका था। उनके प्रति मान भी था, इसलिये उनसे जो मिल सके उसे लेनेका मैंने विचार किया। उसका फल यह हुआ कि मुझे शांति मिली । हिन्दूधर्ममें मुझे जो चाहिये वह मिल सकता है, ऐसा मनको विश्वास हुआ। मेरी इस स्थितिके जवाबदार रायचंद भाई हुए, इससे मेरा उनके प्रति कितना अधिक मान होना चाहिये, इसका पाठक लोग कुछ अनुमान कर सकते हैं। इतना होनेपर भी मैंने उन्हें धर्मगुरु नहीं माना। धर्मगुरुकी तो मैं खोज किया ही करता हूँ, और अबतक मुझे सबके विषयमें यही जवाब मिला है कि ये नहीं' ऐसा संपूर्ण गुरु प्राप्त करनेके लिये तो अधिकार चाहिये, वह मैं कहाँसे लाऊँ ! प्रकरण दूसरा रायचन्द भाईकी साथ मेरी भेंट जौलाई सन् १८९१ में उस दिन हुई जब मैं विलायतसे बम्बई वापिस आया। इन दिनों समुद्रमें तूफान आया करता है, इस कारण जहाज़ रातको देरीसे पहुँचा। मैं डाक्टर-बैरिस्टर-और अब रंगूनके प्रख्यात झवेरी प्राणजीवनदास मेहताके घर उतरा था। रायचन्द भाई उनके बड़े भाईके जमाई होते थे। डाक्टर साहबने ही परिचय कराया। उनके दूसरे बड़े भाई झवेरी रेवाशंकर जगजीवनदासकी पहिचान भी उसी दिन हुई। डाक्टर साहबने रायचन्द भाईका 'कवि' कहकर परिचय कराया और कहा-'कवि होते हुए भी आप हमारी साथ व्यापारमें हैं, आप ज्ञानी और शतावधानी हैं '। किसीने सूचना की कि मैं उन्हें कुछ शब्द सुनाऊँ, और वे शब्द चाहे किसी भी भाषाके हों, जिस क्रमसे मैं बोलूंगा उसी क्रमसे वे दुहरा जावेंगे। मुझे यह सुनकर आश्चर्य हुआ। मैं तो उस समय जवान और विलायतसे लौटा था मुझे भाषाज्ञानका भी अभिमान था । मुझे विलायतकी हवा भी कुछ कम न लगी थी। उन दिनों विलायतसे आया मानों आकाशसे उतरा । मैंने अपना समस्त ज्ञान उलट दिया, और अलग अलग भाषाओंके शब्द पहले तो मैंने लिख लिये-क्योंकि मुझे वह क्रम कहाँ याद रहनेवाला था ! और बादमें उन शब्दोंको मैं बाँच गया। उसी क्रमसे रायचन्द भाईने धीरेसे
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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