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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र १४७ और वहीं याचना भी है; और योग ( मन, वचन और काय ) बाह्यरूपमें पूर्वकर्मको भोग रहा है । वेदोदयका नाश होनेतक गृहस्थावासमें रहना योग्य लगता है। परमेश्वर जान बूझकर वेदोदय रखता है। कारण कि पंचमकालमें परमार्थकी वर्षा ऋतु होने देनेकी उसकी थोड़ी ही इच्छा मालूम होती है । तीर्थकरने जो जो समझा अथवा जो जो प्राप्त किया है उसे......इस कालमें न समझ सकें अथवा न पा सकें, ऐसी कोई भी बात नहीं है। यह निर्णय बहुत समयसे कर रक्खा है । यद्यपि तीर्थकर होनेकी इच्छा नहीं है, परन्तु तीर्थकरके किये अनुसार करनेकी इच्छा है, इतनी अधिक उन्मत्तता आ गई है। उसके शमन करनेकी शक्ति भी आ गई है, परन्तु जान बूझकर ही शमन करनेकी इच्छा नहीं की। आपसे विज्ञप्ति है कि वृद्धसे युवा बनें, और इस अलख-वार्ताके अग्रणीके भी अग्रणी बनें । थोडे लिखेको बहुत समझना। गुणठाणाओंके भेद केवल समझनेके लिये किये हैं। उपशम और क्षपक ये दो तरहकी श्रेणियाँ है। उपशममें प्रत्यक्ष-दर्शनकी संभावना नहीं होती, किन्तु क्षपकमें होती है। प्रत्यक्ष-दर्शनकी संभवताके अभावमें यह जीव ग्यारहवें गुणस्थानतक जाकर वहाँसे पीछे लौटता है । उपशमश्रेणी दो प्रकारकी है-एक आज्ञारूप; और दूसरी मार्गको जाने बिना स्वाभाविक उपशम होनेरूप । आज्ञारूप उपशमश्रेणीवाला आज्ञाका आराधन होनेतक पतित नहीं होता, किन्तु पिछला तो एकदम ठेठ पहुँच जानेके बाद भी मार्ग न जाननेके कारण पतित हो जाता है। यह आँखसे देखी हुई, और आत्मासे अनुभव की हुई बात है । संभव है, यह किसी शास्त्रमें मिल भी जाय, और न मिले तो कोई हर्ज नहीं । यह बात तीर्थकरके हृदयमें थी, यह हमने जान लिया है। __दशपूर्वधारी इत्यादिकी आज्ञाका आराधन करनेकी महावीरदेवकी शिक्षाके विषयमें आपने जो लिखा है वह ठीक है । इसने तो बहुत ही अधिक कहा था; परन्तु उसमें से थोड़ा ही बाकी बचा है; और प्रकाशक पुरुष गृहस्थावासमें है, बाकीके गुफामें हैं । कोई कोई जानते भी हैं, परन्तु उनमें इतना योगबल नहीं। आधुनिक कहे जानेवाले मुनियोंका सूत्रार्थ सुननेतकके भी योग्य नहीं । सूत्र लेकर उपदेश करनेकी कुछ दिनों पीछे जरूरत नहीं पड़ेगी। सूत्र और उसके कोने कोने सब कुछ जाने हुए हैं। (२) (१) जिनसे मार्ग चला है, ऐसे महान् पुरुषोंके विचार, बल, निर्भयता आदि गुण भी महान् ही थे। एक राज्यके प्राप्त करनेमें जितने पराकमकी आवश्यकता है उससे भी कहीं अधिक पराक्रमकी आवश्यकता अपूर्व अभिप्रायसहित धर्म-संततिके चलानेके लिये चाहिए। थोड़े समय पहिले मुझमें वैसी तथारूप शाक्ति मालूम होती थी, अभी उसमें विकलता देखनेमें भाती है, उसका हेतु क्या होना चाहिये, यह विचार करने योग्य है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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