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________________ २४वाँ वर्ष १४५. बम्बई, कार्तिक सुदी १४, १९४७ . . . आत्माने भान पा लिया, यह तो निःसंशय है; ग्रंथी-भेद हो गया, यह तीनों कालोंमें सत्य बात है; सब ज्ञानियों ने भी यह बात स्वीकार की है। अब अन्तको निर्विकल्पसमाधि पाना ही बाकी रही है, जो सुलभ है, और उसके पानेका हेतु भी यही है कि किसी भी प्रकारसे अमृत-सागरका अवलोकन करते हुए थोडीसी भी मायाका आवरण बाधा न पहुंचा सके; अवलोकन-सुखका किंचित्मात्र भी विस्मरण न हो जाय; एक 'तू ही तू' के बिना दूसरी रटन न रहे; और मायामय किसी भी भयका, मोहका, संकल्प और विकल्पका एक भी अंश बाकी न रह जाय । यदि यह एकबार भी योग्य रीतिसे प्राप्त हो जाय तो फिर चाहे जैसे आचरण किया जाय, चाहे जैसे बोला जाय, चाहे जसे आहार-विहार किया जाय, तो भी उसे किसी भी तरहकी बाधा नहीं, उसे परमात्मा भी पूँछ नहीं सकते, और उसका किया हुआ सभी कुछ ठीक है । ऐसी दशा पानेसे परमार्थके लिये किया हुआ प्रयत्न सफल होता है; और ऐसी दशा हुए बिना प्रगट-मार्गके प्रकाशन करनेकी परमात्माकी आमा नहीं है, ऐसा मुझे मालूम होता है इसलिये इस दशाको पाने के बाद ही प्रगट-मार्गको कहने और परमार्थका प्रकाश करनेका रद निश्चय किया है, तबतक नहीं; और इस दशाको पानेमें अब कुछ अधिक समय भी नहीं है । रुपये से पन्द्रह आनेतक तो इसे पा गया हूँ, निर्विकल्पता तो है ही, परन्तु निवृत्ति नहीं है। यदि निति हो तो दूसरोंके परमार्थके लिये क्या करना चाहिये, उसका विचार किया जा सके। उसके बाद त्यागकी आवश्यकता है, और उसके बाद ही दूसरोंके द्वारा त्याग करानेकी गावासकता है। . ___ महान् पुरुषोंने कैसी दशा पाकर मार्गका उपदेश किया है, क्या क्या करके मार्गका उपदेश किया है, इस बातका मामाको अच्छी तरह मरण रहा करता है, और यही बात इस बातका चिह मालम होती है कि प्रगठ-भागमा उपदेश करने देनेको विरोप इच्छा है। इसके लिये अभी हालमें तो सम्पूर्ण गुरु हो जाना ही बोल्पक मार भी इस विषय में बात करनेकी इच्चा नहीं होती। अापकी इच्छाकी रक्षा करनेके लिये कुछ इस प्रति सतीपा बहुत परिचयमें आपे हुए योगपुरुषकी इच्छाके लिये कुस कहना अथवा निसिवाय अन्य सब प्रकारसे गुप्तता ही सखी है। - TA AL लिये क .. ला स्पादिका उत्तर नहीं लिखता । कोले पो उलटता हूँ । बाकी AI HETANTana222520RRIATTAR
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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