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________________ श्रीमद् राजचन्द्र- वचनामृत मूल तत्त्वमें कहीं भी भेद नहीं, मात्र दृष्टिमें भेद है, यह मानकर आशय समझ पवित्र धर्म प्रवर्त्तन करना (पुष्पमाला १४ ). जिनेश्वर के कहे हुए धर्म-तत्त्वोंसे किसी भी प्राणीको लेशमात्र भी खेद उत्पन्न नहीं होता इसमें सब आत्माओंकी रक्षा और सर्वात्मशक्तिका प्रकाश सन्निहित है । इन भेदों के पढ़नेसे, समझनेसे और उनपर अत्यंत सूक्ष्म विचार करनेसे आत्मशक्ति प्रकाश पाती है, और वह जैनदर्शनको सर्वोत्कृष्ट सिद्ध करती है ( मोक्षमाला ६० ). ' धर्म ' बहुत गुप्त वस्तु है । वह बाहर ढूँढनेसे नहीं मिलती। वह तो अपूर्व अंतर्संशोधनसे ही प्राप्त होती है ( २६ ). सब शास्त्रोंको जाननेका, क्रियाका, ज्ञानका, योगका और भक्तिका प्रयोजन निजस्वरूपकी प्राप्ति करना ही है। जिस अनुप्रेक्षासे, जिस दर्शनसे, जिस ज्ञानसे, आत्मत्व प्राप्त होता हो, वही अनुप्रेक्षा, वही दर्शन और वही ज्ञान सर्वोपरि है (४४). हे जीव ! तू भूल मत । कभी कभी उपयोग चूककर किसीके रंजन करनेमें, किसीके द्वारा रंजित होनेमें, अथवा मनकी निर्बलताके कारण दूसरेके पास जो तू मंद हो जाता है, यह तेरी भूल है; उसे न कर ( ८६ ). हमें तो ब्राह्मण, वैष्णव चाहे जो हो सब और मतसे ग्रस्त हो तो वह अहितकारी है, श्वेताम्बर, दिगम्बर जैन आदि चाहे कोई भी हो, आवरणोंको घटावेगा, उसीका कल्याण होगा ( उपदेशछाया ). समान ही हैं । कोई जैन कहा जाता हो मतरहित ही हितकारी है । वैष्णव, बौद्ध, 1 परन्तु जो कदाग्रहरहितभावसे शुद्ध समतासे जैनधर्मका आशय दिगम्बर तथा श्वेताम्बर आचार्योंका आशय, और द्वादशांगीका आशय मात्र आत्माका सनातनधर्म प्राप्त करानेका है, और वही साररूप है ( व्याख्यानसारप्रश्नसमाधान ).
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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