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________________ पत्र १०३, १०४, १०५] विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष (३) तुम मेरे मिलापकी इच्छा करते हो, परन्तु यह किसी अनुचित कालका उदय आया है, इसलिये अपने मिलापसे भी मैं तुमको श्रेयस्कर हो सकूँगा ऐसी बहुत ही कम आशा है । जिन्होंने यथार्थ उपदेश किया है ऐसे वीतरागके उपदेशमें तत्पर रहो, यह मेरा विनयपूर्वक तुम दोनों भाइयोंसे और दूसरोंसे अनुरोध है ।। मोहाधीन मेरी आत्मा बाह्योपाधिसे कितनी तरहसे घिरी हुई है, यह सब तुम जानते ही हो, इसलिये अधिक क्या लिखू ! अभी हालमें तो तुम अपनेसे ही धर्म-शिक्षा लो, योग्य पात्र बनो, मैं भी योग्य पात्र बनूँ , अधिक फिर देखेंगे। १०३ बम्बई, आषाढ़ सुदी १५ बुध. १९४६ (१) यद्यपि चि. सत्यपरायणके स्वर्गवाससूचक शब्द भयंकर हैं किन्तु ऐसे रत्नोंके जीवनका लंबा होना कालको सह्य नहीं होता । धर्म-इच्छुकके ऐसे अनन्य सहायकका रहने देना, मायादेवीको योग्य न लगा । कालकी प्रबल दृष्टिने इस आत्माके-इस जीवनके रहस्यमय विश्रामको खींच लिया। ज्ञानदृष्टिसे शोकका कोई कारण नहीं दीखता; तथापि उनके उत्तमोत्तम गुण शोक करनेको बाध्य करते हैं । उनका बहुत अधिक स्मरण होता है; अधिक लिख नहीं सकता । सत्यपरायणके स्मरणार्थ यदि हो सका तो एक शिक्षा-ग्रंथ लिखनेका विचार कर रहा हूँ। (२)" आहार, विहार और निहारसे नियमित " इस वाक्यका संक्षेप अर्थ यह है: जिसमें योगदशा आती है; उसमें द्रव्य आहार, विहार और निहार ( शरीरकी मलके त्याग करनेकी क्रिया), ये नियमित अर्थात् जैसी चाहिये वैसी-आत्माको किसी प्रकारकी बाधा न पहुँचानेवाली-क्रियासे प्रवृत्ति करनेवाला । धर्ममें संलग्न रहो यही बारबार अनुरोध है । यदि हम सत्यपरायणके मार्गका सेवन करेंगे तो अवश्यमेव सुखी होंगे और पार पायेंगे, ऐसी मुझे आशा है । . उपाधिग्रस्त रायचंदका यथायोग्य. १०४ बम्बई, आषाढ वदी ४ रवि. १९४६ विश्वाससे प्रवृत्ति करके अन्यथा बर्ताव करनेवाला आज पश्चात्ताप करता है। १०५ बम्बई, आषाढ वदी ७ भौम. १९४६ निरंतर निर्भयपनेसे रहित ऐसे इस भ्रांतिरूप संसारमें वीतरागता ही अभ्यास करने योग्य है; निरंतर निर्भयपनेसे विचरना ही श्रेयस्कर है, तथापि कालकी और कर्मकी विचित्रतासे पराधीन होकर यह........करते हैं।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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