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________________ १९४ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र १०१, १०२ (२) बम्बई, आषाद सुदी १०, १९४६ उपाधिके कारण लिंगदेहजन्य ज्ञानमें थोड़ा बहुत फेरफार हुआ मालूम दिया । पवित्रात्मा जूठाभाईके उपरोक्त तिथिमें परन्तु दिनमें स्वर्गवासी होनेकी आज खबर मिली है। इस पावन आत्माके गुणोंका क्या स्मरण करें ! जहाँ विस्मृतिको अवकाश नहीं, वहाँ स्मृतिका होना कैसे माना जाय ! (३) देहधारी होनेके कारण इसका लौकिक नाम ही सत्य था; यह आत्म-दशारूपसे सच्चा वैराग्य ही था। उसकी मिथ्या वासना बहुत क्षीण हो गई थी, वह वीतरागका परम रागी था, संसारसे परम जुगुप्सित था; भक्तिकी प्रधानता उसके अंतरंगमें सदा ही प्रकाशित रहा करती थी; सम्यक्भावपूर्वक वेदनीयकर्मके अनुभव करनेकी उसकी अद्भुत समता थी; मोहनीयकर्मकी प्रबलता उसके अंतरमें बहुत शून्य हो गई थी; मुमुक्षुता उसमें उत्तम प्रकारसे दैदीप्यमान हो उठी थी; ऐसे इस जूठाभाईकी पवित्रात्मा आज जगत्के इस भागका त्याग करके चली गई है । वह सहचारियोंसे मुक्त हो गई है । धर्मके पूर्ण आल्हादमें उसकी अचानक ही आयु पूर्ण हो गई। अरेरे ! इस कालमें ऐसे धर्मात्माका जीवन छोटासा होना, यह कोई अधिक आश्चर्यकी बात नहीं । ऐसे पवित्रात्माकी स्थिति इस कालमें कहाँसे हो सकती है ! दूसरे साथियोंके ऐसे भाग्य कहाँ कि उन्हें ऐसे पवित्रात्माके दर्शनका लाभ अधिक कालतक मिलता रहे है जिसके अंतरमें मोक्षमार्गको देनेवाला सम्यक्त्व प्रकाशित हुआ था, ऐसे पवित्रात्मा जूठाभाईको नमस्कार हो ! नमस्कार हो! १०२ बम्बई, आषाढ़ सुदी ११, १९४६ (१) उपाधिकी विशेष प्रबलता रहती है । यदि जीवन-कालमें ऐसे किसी योगके आनेकी संभावना हो तो मौनसे—उदासीनभावसे—प्रवृत्ति कर लेना ही श्रेयस्कर है । (२) भगवतीके पाठके विषयमें संक्षिप्त खुलासा नीचे दिया जाता है:सुह जोगं पडुछ अणारंभी, अमुह जोगं पडुचं आयारंभी परारंभी तदुभयारंभी । आत्मा शुभ योगकी अपेक्षासे अनारंभी; तथा अशुभ योगकी अपेक्षासे आत्मारंभी, परारंभी, और तदुभयारंभी ( आत्मारंभी और अनारंभी ) होती है। यहाँ शुभका अर्थ पारिणामिक शुभ लेना चाहिये, ऐसी मेरी दृष्टि है । पारिणामिक अर्थात् जिस परिणामसे शुभ अथवा जैसा चाहिये वैसा रहना। यहाँ योगका अर्थ मन, वचन और काया है । ( मेरी दृष्टिसे । ) शास्त्रकारका यह व्याख्यान करनेका मुख्य हेतु यथार्थ वस्तु दिखाने और शुभ योगमें प्रवृत्ति करनेका रहा होगा, ऐसा मैं समझता हूँ। पाठमें बहुत ही सुन्दर उपदेश दिया गया है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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