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________________ ૨૮૮ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ८८, ८९, ९. यदि उसकी इसके सिवाय दूसरे किसी भी कारणसे संतोषवृत्ति न रहती हो तो तुझे उसके कहे अनुसार प्रवृत्ति करके उस प्रसंगको पूरा करना चाहिये, अर्थात् प्रसंगकी पूर्णाहुतितक ऐसा करने में तुझे खेदखिन्न न होना चाहिये । तेरे व्यवहारसे वे संतुष्ट रहें तो उदासीन वृत्तिसे निराग्रहभावसे उनका भला हो, तुझे ऐसा करनेकी सावधानी रखनी चाहिये । बम्बई, चैत्र १९४६ मोहाच्छादित दशासे विवेक नहीं होता, यह ठीक बात है, अन्यथा वस्तुरूपसे यह विवेक यथार्थ है। बहुत ही सूक्ष्म अवलोकन रक्खो । १. सत्यको तो सत्य ही रहने दो। २. जितना कर सको उतना ही कहो। अशक्यता न छिपाओ। ३. एकनिष्ठ रहो। एकनिष्ठ रहो। किसी भी प्रशस्त क्रममें एकनिष्ठ रहो। . वीतरागने यथार्थ ही कहा है। हे आत्मन् ! स्थितिस्थापक दशा प्राप्त कर । इस दुःखको किससे कहें ? और कैसे इसे दूर करें ! अपने आप अपने आपका बैरी है, यह कैसी सच्ची बात है ! ८९ बम्बई, वैशाख वदी ४ गुरु. १९४६ आज मुझे अनुपम उल्लास हो रहा है; जान पड़ता है कि आज मेरा जन्म सफल हो गया है। वस्तु क्या है, उसका विवेक क्या है, उसका विवेचक कौन है, इस क्रमके स्पष्ट जाननेसे मुझे सच्चा मार्ग मालूम हो गया है ॥१॥ ९० बम्बई, वैशाख वदी १ गुरु. १९४६ होत आसवा परिसवा, नहिं इनमें सन्देह; मात्र दृष्टिकी भूल है, भूल गये गत एहि ॥१॥ . रचना जिन-उपदेशकी, परमोत्तम तिनु काल; इनमें सब मत रहत हैं, करतें निज संभाल ॥२॥ ८९ आज मने उछरंग अनुपम, जन्मकृतार्थ जोग जणायो वास्तव्य वस्तु, विवेक विवेचक ते क्रम स्पष्ट सुमार्ग गणायो॥१॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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