SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पत्र ८७] विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष हे जीव ! भूल मत, तुझे सत्य कहता हूँ। सुख अंतरमें ही है; वह बाहर ढूँढनेसे नहीं मिलेगा। आंतरिक सुख अंतरकी स्थितिमें है; उस सुखकी स्थिति होनेके लिये तू बाह्य पदार्थसंबंधी आश्चर्योको भूल जा। उस सुखकी स्थिति रहनी बहुत ही कठिन है, क्योंकि जैसे जैसे निमित्त मिलते जातें हैं, वैसे वैसे बारबार वृत्ति भी चलित हो जाया करती है; इसलिये वृत्तिका उपयोग दृढ़ रखना चाहिये । यदि इस क्रमको तू यथायोग्य निवाहता चलेगा तो तुझे कभी हताश नहीं होने पड़ेगा। तू निर्भय हो जायगा। हे जीव ! तू भूल मत । कभी कभी उपयोग चूककर किसीके रंजन करनेमें, किसीके द्वारा रांजित होनेमें, अथवा मनकी निर्बलताके कारण दूसरेके पास जो तू मंद हो जाता है, यह तेरी भूल है । उसे न कर। ८७ बम्बई, फाल्गुन १९४६ परम सत्य है। परम सत्य है। त्रिकालमें ऐसा ही है। परम सत्य है। व्यवहारके प्रसंगको सावधानीसे, मंद उपयोगसे, और समताभावसे निभाते आना। दूसरे तेरा कहा क्यों नहीं मानते, यह प्रश्न तेरे अंतरमें कभी पैदा न हो। दूसरे तेरा कहा मानते हैं, और यह बहुत ठीक है, तुझे ऐसा स्मरण कभी न हो। तू सब तरहसे अपनेमें ही प्रवृत्ति कर ।. जीवन-अजीवन पर समवृत्ति हो । जीवन हो तो इसी वृत्तिसे पूर्ण हो । जबतक गृहवास रहे तबतक व्यवहारका प्रसंग होनेपर भी सत्यको सत्य कहो । गृहवासमें भी उसीमें ही लक्ष रहे। गृहवासमें अपने कुटुम्बियोंको उचित वृत्ति रखना सिखा; सबको समान ही मान । उस समयतकका तेरा काल बहुत ही उचित व्यतीत होओः अमुक व्यवहारके प्रसंगका काल, उसके सिवाय तत्संबंधी कार्यकाल, पूर्वकर्मोदय काल, निद्राकाल। यदि तेरी स्वतंत्रता और तेरे क्रमसे तुझे तेरे उपजीवन अर्थात् व्यवहार संबंधी संताप हा ता उचित प्रकारसे अपना व्यवहार चलाना ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy