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________________ १७८ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ६९, ७०, ७१, ७२ है उसे कलम लिख नहीं सकती, वचनद्वारा उसका वर्णन नहीं हो सकता, और उसे मन भी नहीं मनन कर सकता ऐसा है वह । बम्बई, कार्तिक १९४६ सब दर्शनोंसे उच्च गति हो सकती है, परन्तु मोक्षके मार्गको ज्ञानियोंने उन शब्दोंमें स्पष्ट रूपसे नहीं कहा, गौणतासे रक्खा है। उसे गौण क्यों रक्खा, इसका सर्वोत्तम कारण यही मालूम होता है: जिस समय निश्चय श्रद्धान, निग्रंथ ज्ञानी गुरुकी प्राप्ति, उसकी आज्ञाका आराधन, उसके समीप सदैव रहना, अथवा सत्संगकी प्राप्ति, ये बातें हो जाँयगी उसी समय आत्म-दर्शन प्राप्त होगा। बम्बई, कार्तिक १९४६ नवपद-ध्यानियोंकी वृद्धि करनेकी मेरी आकांक्षा है । ७१ बम्बई, मंगसिर सुदी १-२ रवि. १९४६ हे गौतम ! उस कालमें और उस समयमें मैं छद्मस्थ अवस्था में एकादश वर्षकी पर्यायसे, छडम अट्ठमसे, सावधानीके साथ निरंतर तपश्चर्या और संयमपूर्वक आत्मत्वकी भावना भाते हुए पूर्वानुपूर्वीसे चलते हुए, एक गाँवसे दूसरे गाँवमें जाते हुए, सुषुमारपुर नामक नगरके अशोकवनखंड बागके अशोकवर वृक्षके नीचे पृथ्वीशिलापट्टपर आया । वहाँ आकर अशोकवर वृक्षके नीचे, पृथ्वीशिलापट्टके ऊपर, अष्टम भक्त ग्रहण करके, दोनों पैरोंको संकुचित करके, हाथोंको लंबा करके, एक पुद्गलमें दृष्टिको स्थिर करके, निमेषरहित नयनोंसे ज़रा नीचे मुख रखकर, योगकी समाधिपूर्वक, सब इन्द्रियोंको गुप्त करके एक रात्रिकी महाप्रतिमा धारण करके विचरता था। (चमर ) ७२ बम्बई, मंगसिर सुदी ९ रवि. १९४६ तुमने मेरे विषयमें जो जो प्रशंसा लिखी उसपर मैंने बहुत मनन किया है । जिस तरह वैसे गुण मुझमें प्रकाशित हों, उस तरहका आचरण करनेकी मेरी अभिलाषा है, परन्तु वैसे गुण कहीं मुझमें प्रकाशित हो गये हैं, ऐसा मुझे तो मालूम नहीं होता। अधिकसे अधिक यह मान सकते हैं कि मात्र उनकी रुचि मुझमें उत्पन्न हुई है । हम सब जैसे बने तैसे एक ही पदके इच्छुक होकर प्रयत्नशील होते हैं, और वह प्रयत्न यह है कि " बँधे हुओंको छुड़ा लेना"। यह सर्वमान्य बात है कि जिस तरह यह बंधन छूट सके उस तरह छुड़ा लेना।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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