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________________ पत्र ६७, ६८ 1 . विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष १७७ ६७ बम्बई, कार्तिक वदी ३ रवि. १९४६ हम आयुके प्रमाणको नहीं जानते । बाल्यावस्था तो नासमझीमें व्यतीत हो गई । कल्पना करो कि ४६ वर्षकी आयु है, अथवा इतनी आयु है कि वृद्धावस्थाका दर्शन कर सकें, परन्तु उसमें शिथिल दशाके सिवाय हम दूसरी कुछ भी बात न देख सकेंगे । अब केवल एक युवावस्था बाकी बची, उसमें भी यदि मोहनीयकी प्रबलता न घटी तो सुखकी निद्रा न आयगी, निरोगी नहीं रहा जायगा, मिथ्या संकल्प-विकल्प दूर न होंगे, और जगह जगह भटकना पड़ेगा और यह भी जब होगा जब कि ऋद्धि होगी, नहीं तो प्रथम उसके प्राप्त करनेका प्रयत्न करना पड़ेगा । उसका इच्छानुसार मिलना न मिलना तो एक ओर रहा, परन्तु शायद पेटभर अन्न मिलना भी दुर्लभ हो जाय । उसीकी चिंतामें, उसीके विकल्पमें, और उसको प्राप्त करके सुख भोगेंगे इसी संकल्पमें, केवल दुःखके सिवाय दूसरा कुछ भी न देख सकेंगे। इस अवस्थामें किसी कार्यमें प्रवृत्ति करनेसे सफल हो गये तो आँख एकदम तिरछी हो जायगी । यदि सफल न हुए तो लोकका तिरस्कार और अपना निष्फल खेद बहुत दुःख देगा। प्रत्येक समय मृत्युका भयवाला, रोगका भयवाला, आजीविकाका भयवाला, यदि यश हुआ तो उसकी रक्षा करनेका भयवाला, यदि अपयश हुआ तो उसे दूर करनेका भयवाला, यदि अपना लेना हुआ तो उसे लेनेका भयवाला, यदि कर्ज हुआ तो उसकी हायतोबाका भयवाला, यदि स्त्री हुई तो उसके .......का भयवाला, यदि न हुई तो उसे पानेका विचारवाला, यदि पुत्र पौत्रादिक हुए तो उनकी चिन्ताका भयवाला, यदि न हुए तो उन्हें प्राप्त करनेका विचारवाला, यदि कम ऋद्धि हुई तो उसे बढ़ानेके विचारवाला, यदि अधिक हुई तो उसे गोदीमें भर लेनेका विचारवाला, इत्यादि रूपसे दूसरे समस्त साधनोंके लिये भी अनुभव होगा। क्रमसे कहो अथवा अक्रमसे, किन्तु संक्षेपमें कहनेका तात्पर्य यही है कि सुखका समय कौनसा कहा जाय-बाल्यावस्था ! युवावस्था ! जरावस्था ! निरोगावस्था ? रोगावस्था ! धनावस्था ? निर्धनावस्था ! गृहस्थावस्था ! या अगृहस्थावस्था ! इस सब प्रकारके बाह्य परिश्रमके बिना अंतरंगके श्रेष्ठ विचारसे जो विवेक हुआ है वही हमें दूसरी दृष्टि कराकर सर्वकालके लिये सुखी बनाता है । इसका अर्थ क्या ? इसका अर्थ यही है कि अधिक जियें तो भी सुखी, कम जियें तो भी सुखी, फिर जन्म लेना पड़े तो भी सुखी, और जन्म न हो तो भी सुखी। . बम्बई, कार्तिक १९४६ . ऐसा पवित्र दर्शन हो जानेके बाद फिर चाहे जैसा भी आचरण क्यों न हो परन्तु उसे तीव्र बंधन नहीं रहता, अनंत संसार नहीं रहता, सोलह भव नहीं रहते, अभ्यंतर दुःख नहीं रहता, शंकाका निमित्त नहीं रहता और अंतरंग-मोहिनी भी नहीं रहती। उससे सत् सत् निरुपम, सर्वोत्तम, शुक्ल, शीतल, अमृतमय दर्शनज्ञान, सम्यक् ज्योतिर्मय, चिरकाल आनंदकी प्राप्ति हो जाती है। उस अद्भुत सत्स्वरूपदर्शनकी बलिहारी है! जहाँ मतभेद नहीं, जहाँ शंका, कंखा, वितिगिच्छा, मूदृष्टि, इनमेंसे कुछ भी नहीं; जो कुछ २३
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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