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________________ भीमद् राजचन्द्र [पत्र ६४ उस समयकी स्मृति विशुद्ध होनेसे केवल एकबार ही पाठका अवलोकन करना पड़ता था, फिर भी कैसी भी ख्याति पानेका हेतु न था इसलिये उपाधि बहुत कम थी। स्मृति इतनी अधिक प्रबल थी कि वैसी स्मृति इस कालमें इस क्षेत्रमें बहुत ही थोड़े मनुष्योंकी होगी । मैं अभ्यास करनेमें बहुत प्रमादी था, बात बनानेमें होशियार, खिलाड़ी और बहुत आनंदी जीव था। जिस समय पाठको शिक्षक पढ़ाता था उसी समय पढ़कर मैं उसका भावार्थ कह जाया करता था; बस इतनेसे ही इस तरफसे छुट्टी मिल जाती थी। उस समय मुझमें प्रीति और सरल वात्सल्य बहुत था; मैं सबसे मित्रता पैदा करना चाहता था; सबमें भ्रातृभाव हो तो ही सुख है, यह विश्वास मेरे मनमें स्वाभाविकरूपसे रहा करता था। लोगोंमें किसी भी प्रकारका जुदाईका अंकुर देखते ही मेरा अंतःकरण रो पड़ता था। उस समय कल्पित बातें करनेकी मुझे बहुत आदत थी । आठवें वर्ष में मैंने कविता की थी; जो पीछेसे जाँच करनेपर छंदशास्त्रके नियमानुकूल ठीक निकली। __ अभ्यास मैंने इतनी शीघ्रतासे किया था कि जिस आदमीने मुझे पहिली पुस्तक सिखानी शुरु की थी, उसीको मैंने गुजराती भाषाका शिक्षण ठीक तरहसे प्राप्त करके, उसी पुस्तकको पढ़ाया था। उस समय मैंने कई एक काव्य-ग्रंथ पढ़ लिये थे, तथा अनेक प्रकारके छोटे मोटे, उलटे सीधे ज्ञानग्रंथ देख गया था, जो प्रायः अब भी स्मृतिमें हैं। उस समयतक मैंने स्वाभाविकरूपसे भादिकताका ही सेवन किया था। मैं मनुष्यजातिका बहुत विश्वासु था । स्वाभाविक सृष्टि-रचनापर मुझे बहुत ही प्रीति थी। मेरे पितामह कृष्णकी भक्ति किया करते थे। उस वयमें मैंने उनके द्वारा कृष्ण-कीर्तनके पदोंको, तथा जुदे जुदे अवतारसंबंधी चमत्कारोंको सुना था । जिससे मुझे उन अवतारोंमें भक्तिके साथ साथ प्रीति भी उत्पन्न हो गई थी; और रामदासजी नामके साधुसे मैंने बाल-लीलामें कंठी भी बँधवाई थी । मैं नित्य ही कृष्णके दर्शन करने जाता था। मैं उनकी बहुत बार कथायें सुनता था; जिससे अवतारोंके चमत्कारोंपर बारबार मुग्ध हो जाया करता था, और उन्हें परमात्मा मानता था। इस कारण उनके रहनेका स्थल देखनेकी मुझे परम उत्कंठा थी। मैं उनके सम्प्रदायका महंत अथवा त्यागी होऊँ तो कितना आनंद मिले, बस यही कल्पना हुआ करती थी। तथा जब कभी किसी धनवैभवकी विभूति देखता तो समर्थ वैभवशाली होनेकी इच्छा हुआ करती थी। उसी बीचमें प्रवीणसागर नामक ग्रंथ भी मैं पढ़ गया था। यद्यपि उसे अधिक समझा तो न था, फिर भी स्त्रीसंबंधी सुखमें लीन होऊँ और निरुपाधि होकर कथायें श्रवण करते होऊँ तो कैसी आनन्द-दशा हो! यही मेरी तृष्णा रहा करती थी। गुजराती भाषाकी पाठमालामें कई एक जगहमें जगत्कर्ताके संबंधमें उपदेश किया गया है, यह उपदेश मुझे दृढ़ हो गया था। इस कारण जैन लोगोंसे मुझे बहुत घृणा रहा करती थी। कोई भी पदार्थ बिना बनाये कभी नहीं बन सकता, इसलिये जैन लोग मूर्ख हैं, उन्हें कुछ भी खबर नहीं। उस समय प्रतिमा-पूजनके अश्रद्धालु लोगोंकी क्रिया भी मुझे वैसी ही दिखाई देती थीइसलिये उन क्रियाओंके मलीन लगनेके कारण उनसे मैं बहुत डरता था, अर्थात् वे क्रियायें मुझे प्रिय नहीं लगती थीं।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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