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________________ २३वाँ वर्ष ६४ बम्बई, १९४६ कार्तिक सुदी १५ संवत् १९२४ में कार्तिक सुंदी १५ को रविवारके दिन मेरा जन्म हुआ था। इससे सामान्य गणनासे आज मुझे बाईस वर्ष पूरे हो गये हैं। इस बाईस वर्षकी अल्पवयमें मैंने आत्मासंबंधी, मनसंबंधी, वचनसंबंधी, तनसंबंधी, और धनसंबंधी अनेक रंग देखे हैं । नाना प्रकारकी सृष्टिरचना, नाना प्रकारकी सांसारिक लहरें और अनंत दुःखके मूलकारण इन सबके अनेक प्रकारसे मुझे अनुभव हुए हैं । समर्थ तत्त्वज्ञानियोंने और समर्थ नास्तिकोंने जो जो विचार किये हैं, उसी तरहके अनेक विचार मैंने इसी अल्पवयमें किये हैं । महान् चक्रवर्तीद्वारा किये गये तृष्णापूर्ण विचार और एक निस्पृही आत्माद्वारा किये हुए निस्पृहापूर्ण विचार भी मैंने किये हैं। अमरत्वकी सिद्धि और क्षणिकत्वकी सिद्धिपर मैंने खूब मनन किया है। अल्पवयमें ही मैंने महान् विचार कर डाले हैं; और महान् विचित्रताकी प्राप्ति हुई है। जब इन सब बातोंको बहुत गंभीरभावसे आज मैं ध्यानपूर्वक देख जाता हूँ तब पहिलेकी उगती हुई मेरी विचारश्रेणी और आत्म-दशा तथा आजकी विचारश्रेणी और आत्म-दशामें आकाश पातालका अंतर दिखाई देता है । वह अंतर इतना बड़ा है कि मानों उसका और इसका अन्त कभी भी मिलाया नहीं मिलेगा । परन्तु तुम सोचोगे कि इतनी सब विचित्रताओंका किसी स्थलपर कुछ लेखन अथवा चित्रण कर रक्खा है या नहीं ? तो उसका इतना ही उत्तर दे सकता हूँ कि यह सब लेखन-चित्रण स्मृतिके चित्रपटपर ही अंकित है, अन्यथा लेखनीको उठाकर उन्हें जगत्में बतानेका प्रयत्न कभी नहीं किया । यद्यपि मैं यह समझ सकता हूँ कि वह वय-चर्या जनसमूहको बहुत उपयोगी, पुनः पुनः मनन करने योग्य, और परिणाममें उनकी तरफसे मुझे श्रेयकी प्राप्ति करानेवाली है, परन्तु मेरी स्मृतिने वैसा परिश्रम उठानेकी मुझे सर्वथा मना की थी, इसलिये लाचार होकर क्षमा माँगे लेता हूँ। पारिणामिक विचारसे उस स्मृतिकी इच्छाको दबाकर उसी स्मृतिको समझाकर यदि हो सका तो उस वय-चर्याको धीरे धीरे अवश्य धवल पत्रपर लिखूगा। तो भी समुच्चयवय-चर्याको सुना जाता हूँ: १. सात वर्षतक नितांत बालवय खेल-कूदमें बीती थी। उस समयका केवल इतना मुझे याद पड़ता है कि मेरी आत्मामें विचित्र कल्पनायें ( कल्पनाके स्वरूप अथवा हेतुको समझे बिना ही ) हुआ करती थीं। खेल-कूदमें भी विजय पानेकी और राजराजेश्वर जैसी ऊँची पदवी प्राप्त करनेकी मेरी परम अभिलाषा रहा करती थी। वस्त्र पहिननेकी, स्वच्छ रहनेकी, खाने पीनेकी, सोने बैठनेकी मेरी सभी दशायें विदेही थीं, फिर भी मेरा हृदय कोमल था। वह दशा अब भी मुझे बहुत याद आती है। यदि आजका विवेकयुक्त ज्ञान मुझे उस अवस्थामें होता तो मुझे मोक्षके लिये बहुत अधिक आभिलाषा न रह जाती । ऐसी निरपराध दशा होनेसे वह दशा मुझे पुनः पुनः याद आती है। २. सात वर्षसे ग्यारह वर्ष तकका मेरा समय शिक्षा प्राप्त करनेमें बीता था । आज मेरी सतिकी जितनी प्रसिद्धि है उस प्रसिद्धिके कारण वह कुछ हीन जैसी अवश्य मालूम होती है, परन्तु
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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