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________________ पत्र ५८,५९, विविध पत्र आदि संग्रह-२२वाँ वर्ष १६७ बम्बई, कार्तिक वि. सं. १९४६ समझपूर्वक अल्पभाषी होनेवालेको पश्चात्ताप करनेके बहुत ही थोडे अवसर आनेकी संभावना है। हे नाथ ! यदि सातवें तमतमप्रभा नामक नरककी वेदना मिली होती तो कदाचित् उसे स्वीकार कर लेता, परन्तु जगतकी मोहिनी स्वीकारी नहीं जाती। ___ यदि पूर्वके अशुभ कर्मका उदय होनेपर उसका वेदन करते हुए शोक करते हो तो अब इसका भी ध्यान रक्खो कि नये कौका बंध करते हुए वैसा दुःखद परिणाम देनेवाले कर्मोंका तो बंध नहीं कर रहे ! यदि आत्माको पहिचानना हो तो आत्माका परिचयी, और परवस्तुका त्यागी होना चाहिये । जो कोई अपनी जितनी पौद्गलिक बड़ाई चाहता है उसकी उतनी ही आत्मिक अधोगति हो जानेकी संभावना है। प्रशस्त पुरुषकी भक्ति करो, उसका स्मरण करो, उसका गुणचिंतन करो। ___ बम्बई, वि. सं. १९४६ प्रत्येक पदार्थका अत्यंत विवेक करके इस जीवको उससे अलिप्त रक्खे, ऐसा निग्रंथ कहते हैं । जैसे शुद्ध स्फटिकमें अन्य रंगका प्रतिभास होनेसे उसका मूल स्वरूप लक्षमें नहीं आता वैसे ही शुद्ध निर्मल यह चेतन अन्य संयोगके तदनुरूप अध्याससे अपने स्वरूपके लक्षको नहीं पाता। इसी बातको थोड़े बहुत फेरफारके साथ जैन, वेदांत, सांख्य, योग आदिने भी कहा है। बम्बई, वि. सं.१९४६ जो पुरुष ग्रंथमें 'सहज' लिख रहा है वह पुरुष अपने आपको ही लक्ष्य करके यह सब कुछ लिख रहा है। ___उसकी अब अंतरंगमें ऐसी दशा है कि बिना किसी अपवादके उसने सभी संसारी इच्छाओंको भी विस्मृत कर दिया है। वह कुछ पा भी चुका है, और वह पूर्णका परम मुमुक्षु भी है, वह अन्तिम मार्गका निःशंक अभिलाषी है। अभी हालमें जो आवरण उसके उदय आये हैं, उन आवरणोंसे इसे खेद नहीं, परन्तु वस्तुभावमें होनेवाली मंदताका उसे खेद है । वह धर्मकी विधि, अर्थकी विधि, और उसके आधारसे मोक्षकी विधिको प्रकाशित कर सकता है । इस कालमें बहुत ही कम पुरुषोंको प्राप्त हुआ होगा, ऐसे क्षयोपशमभावका धारक वह पुरुष है। उसे अपनी स्मृतिके लिये गर्व नहीं है, तर्कके लिये गर्व नहीं है, तथा उसके लिये उसका
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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