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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र २० इसी तरह त्यागी गुरुओंके सिवाय ज़बर्दस्तीसे बन बैठे हुए महावीरदेवके मार्गरक्षकरूपसे गिने जानेवाले यतियोंकी मार्ग चलानेकी शैलीके लिये तो कुछ बोलना ही बाकी नहीं रहता । कारण कि गृहस्थके तो अणुव्रत भी होते हैं, परन्तु ये तो तीर्थंकरदेवकी तरह कल्पातीत पुरुष बन बैठे हैं । ___ संशोधक पुरुष बहुत कम हैं । मुक्त होनेकी अंत:करणमें अभिलाषा रखनेवाले और पुरुषार्थ करनेवाले बहुत कम हैं। उन्हें सद्गुरु, सत्संग अथवा सत्शास्त्र जैसी सामग्रीका मिलना दुर्लभ हो गया है । जहाँ कहीं भी पूँछने जाओ वहाँ सब अपनी अपनी ही गाते हैं । फिर सच्ची और झूठीका कोई भाव ही नहीं पूँछता । भाव पूंछनेवालेके आगे मिथ्या प्रश्नोत्तर करके वे स्वयं अपनी संसार-स्थिति बढ़ाते हैं और दूसरेको भी संसारकी स्थिति बढ़ानेका निमित्त होते हैं। रही सहीमें पूरी बात यह है कि यदि कोई एक कोई संशोधक आत्मा हैं भी तो वे भी अप्रयोजनभूत पृथिवी इत्यादि विषयोंमें शंकाके कारण रुक गईं हैं । उन्हें भी अनुभव-धर्मपर आना बहुत ही कठिन हो गया है। इसपरसे मेरा कहनेका यह अभिप्राय नहीं है कि आजकल कोई भी जैनदर्शनका आराधक नहीं । हैं अवश्य, परन्तु बहुत ही कम, बहुत ही कम । और जो हैं भी उनमें मुक्त होनेके सिवाय दूसरी कोई भी अभिलाषा न हो, और उन्होंने वीतरागकी आज्ञामें ही अपनी आत्मा समर्पण कर दी हो तो ऐसे लोग तो उँगलीपर गिनने लायक ही निकलेंगे, नहीं तो दर्शनकी दशा देखकर करुणा उत्पन्न हो आती है। यदि स्थिर चित्तसे विचार करके देखोगे तो तुम्हें यह मेरा कथन सप्रमाण ही सिद्ध होगा। इन सब मतोंमें कुछ मतोंके विषयमें तो कुछ सामान्य ही विवाद है। किन्तु मुख्य विवाद तो इस विषयका है कि एक प्रतिमाकी सिद्धि करता है, और दूसरा उसका सर्वथा खंडन करता है। दूसरे पक्षमें पहिले मैं भी गिना जाता था । मेरी अभिलाषा तो केवल वीतरागदेवकी आज्ञाके आराधन करनेकी ही ओर है । अपनी स्थिति सत्य सत्य स्पष्ट करके यह मैं बता देना चाहता हूँ कि प्रथम पक्ष सत्य है, अर्थात् जिनप्रतिमा और उसका पूजन शास्त्रोक्त, प्रमाणोक्त, अनुभवोक्त और अनुभवमें लेने योग्य है । मुझे उन पदार्थीका जिस रूपसे ज्ञान हुआ है और उस संबंधमें मुझे जो कुछ अल्प शंका थी वह भी दूर हो गई है । उस वस्तुका कुछ थोड़ासा प्रतिपादन करनेसे उस संबंधमें कोई भी आत्मा विचार कर सकेगी, और उस वस्तुकी सिद्धि हो जाय तो इस संबंधमें उसका मतभेद दूर होनेसे वह सुलभबोध पानेका भी एक कार्य होगा; यह समझकर संक्षेपमें प्रतिमाकी सिद्धिके लिये कुछ विचारोंको यहाँ कहता हूँ: मेरी प्रतिमामें श्रद्धा है, इसलिये तुम सब भी श्रद्धा करो इसलिये मैं यह नहीं कह रहा हूँ, परन्तु यदि उससे वीर भगवान्की आज्ञाका आराधन होता दिखाई दे तो वैसा करो, परन्तु इतना स्मरण रखना चाहिये कि आगमके कुछ प्रमाणोंकी सिद्धि होनेके लिये परंपराके. अनुभव इत्यादिकी आवश्यकता है । यदि तुम कहो तो मैं कुतर्कसे समस्त जैनदर्शनका भी खंडन कर दिखा दूँ परन्तु उसमें कल्याण नहीं ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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