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________________ १३५ पंत्र २० विविध पत्र आदि संग्रह-२०वाँ वर्ष अभिलाषा है, उसकी प्रवृत्ति तो उसी मार्गमें होती है; परन्तु लोक अथवा लोकदृष्टिसे चलनेवाले पुरुष, तथा पूर्वके दुर्घट कर्मके उदयके कारण मतकी श्रद्धामें पड़े हुए मनुष्य, उस मार्गका विचार कर सकें अथवा उसका ज्ञान प्राप्त कर सकें, और ऐसा उनके कुछ बोधिदुर्लभ गुरु करने दें, तथा मतभेद दूर करके परमात्माकी आज्ञाका सम्यक्प से आराधन करते हुए हम उन मतवादियोंको देखें, यह बिलकुल असंभव जैसी बात है। सबको समान बुद्धि उत्पन्न होकर, संशोधन होकर, वीतरागकी आज्ञारूप मार्गका प्रतिपादन हो, यद्यपि यह बात सर्वथारूपसे होने जैसी दीखती नहीं, परन्तु फिर भी यदि सुलभ-बोधि आत्मायें उसके लिये आवश्यक प्रयत्न करती रहें तो परिणाम अवश्य ही श्रेष्ठ आवेगा, यह बात मुझे संभव मालूम होती है । दुःषमकालके प्रतापसे, जो लोग विद्याका ज्ञान प्राप्त कर सके हैं उनको धर्मतत्त्वपर मूलसे ही श्रद्धा नहीं होती; तथा सरलताके कारण जिनको कुछ श्रद्धा होती भी है, उन्हें उस विषयका कुछ ज्ञान नहीं होता; यदि कोई ज्ञानवाला भी निकले तो वह ज्ञान उसको धनकी वृद्धिमें विघ्न करनेवाला ही होता है, किन्तु सहायक नहीं होता, ऐसी ही आजकलकी हालत है । इस तरह शिक्षा पाये हुए लोगोंके लिये धर्मप्राप्ति होना अत्यंत कठिन हो गया है। शिक्षारहित लोगोंमें स्वाभाविकरूपसे एक यह गुण रहता है कि जिस धर्मको हमारे बाप दादा मानते चले आये हैं, उसी धर्मके ऊपर हमें भी चलना चाहिये, और वही मत सत्य भी होना चाहिये । तथा हमें अपने गुरुके वचनोंपर ही विश्वास रखना चाहिये; फिर चाहे वह गुरु शास्त्रके नामतक भी न जानता हो, परन्तु वही महाज्ञानी है ऐसा मानकर चलना चाहिये । इसी तरह जो हम कुछ मानते हैं वही वीतरागका उपदेश किया हुआ धर्म है, बाकी तो केवल जैनमतके नामसे प्रचलित मत हैं और वे सब असत् मत हैं । इस तरह उनकी समझ होनेसे वे विचारे उसी मतमें संलग्न रहते हैं । अपेक्षा दृष्टि से देखनेमें इनको भी दोष नहीं दे सकते । जैनधर्मक अन्तर्गत जो जो मत प्रचलित हैं उनमें बहुत करके जैनसंबंधी ही क्रियायें होगी. यह मानी हुई बात है । इस तरहकी समान प्रवृत्ति देखकर जो लोग जिस मतमें वे दीक्षित हुए हों, उसी मतमें ही वे दीक्षित पुरुष संलम रहा करते हैं । दीक्षितोंकी दीक्षा भी या तो भदिकताके कारण, या भीख माँगने जैसी स्थितिसे घबड़ा जानेके कारण, अथवा स्मशान-वैराग्यसे ली हुई दीक्षा जैसी होती है । वास्तविक शिक्षाकी सापेक्ष स्फुरणासे दीक्षा लेनेवाले पुरुष तुम विरले ही देखोगे । और यदि देखोगे भी तो वे उस मतसे तंग आकर केवल वीतरागदेवकी आज्ञामें संलम होनेके लिये ही अधिक तत्पर होंगे। जिसको शिक्षाकी सापेक्ष स्फुरणा हुई है, उसके सिवाय दूसरे जितने दीक्षित अथवा गृहस्थ मनुष्य हैं वे सब स्वयं जिस मतमें पड़े रहते हैं उसीमें रागी होते हैं। उनको विचारोंकी प्रेरणा करनेवाला कोई नहीं मिलता। गुरु लोग अपने मतसंबंधी नाना प्रकारके योजना करके रक्खे दुए विकल्पोंको. चाहे उसमें फिर कोई यथार्थ प्रमाण हो अथवा न हो, समझाकर उनको अपने पंजेमें रखकर उन्हें
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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