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________________ १२८ श्रीमद् राजचन्द्र [ ९ स्वरोदयविज्ञान दर्शनकी सम्यक्ततासे उनकी यही मान्यता रही कि मोहाधीन आत्मा अपने आपको भूलकर जड़पना स्वीकार कर लेती है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं । फिर उसका स्वीकार करना शब्दकी तकरारमें (२) वर्तमान शताब्दिमें और फिर उसके भी कुछ वर्ष व्यतीत होने तक चिदानन्दजी आत्मज्ञ मौजूद थे । बहुत ही समीपका समय होनेके कारण जिनको उनका दर्शन, समागम, और उनकी दशाका अनुभव हुआ है ऐसे प्रतीतिवाले कुछ मनुष्योंसे उनके विषयमें कुछ मालूम हो सका है । इस विषयमें अब भी उन मनुष्योंसे कुछ जाना जा सकता है । उनके जैनमुनि हो जानेके बाद अपनी परम निर्विकल्प दशा हो जानेसे उन्हें जान पड़ा कि वे अब क्रमपूर्वक द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे यम-नियमोंका पालन न कर सकेंगे। तत्त्वज्ञानियोंकी मान्यता है कि जिस पदार्थकी प्राप्तिके लिये यम-नियमका क्रमपूर्वक पालन किया जाता है उस वस्तुकी प्राप्ति होनेके बाद फिर उस श्रेणीसे प्रवृत्ति करना अथवा न करना दोनों समान हैं। जिसको निग्रंथ-प्रवचनमें अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती मुनि माना है, उसमेंकी सर्वोत्तम जातिके लिये कुछ भी नहीं कहा जा सकता, परन्तु केबल उनके वचनोंका मेरे अनुभव-ज्ञानके कारण परिचय होनेसे ऐसा कहा जा सका है कि वे प्रायः मध्यम अप्रमत्तदशामें थे। फिर उस दशामें यम-नियमका पालन करना गौणतासे आ जाता है, इसलिये आधिक अत्मानन्दके लिये उन्होंने यह दशा स्वीकार की । इस समयमें ऐसी दशाको पहुँचे हुए बहुत ही थोड़े मनुष्योंका मिलना भी बड़ा कठिन है । उस अवस्थामें अप्रमत्तताविषयक बातकी असंभावना आसानीसे हो जायगी, ऐसा मानकर उन्होंने अपने जीवनको अनियतपनेसे और गुप्तरूपसे बिताया। यदि वे ऐसी ही दशामें रहे होते तो बहुतसे मनुष्य उनके मुनिपनेकी शिथिलता समझते और ऐसा समझनेसे उनपर ऐसे पुरुषकी उलटी ही छाप पड़ती । ऐसा हार्दिक निर्णय होनेसे उन्होंने इस दशाको स्वीकार की। जैसे कंचुक त्यागसें बिनसत नहीं भुजंग, देह त्यागसे जीव पुनि तैसे रहत अभंग--श्रीचिदानन्द .. जैसे काँचलीका त्याग करनेसे सर्पका नाश नहीं होता वैसे ही देहका त्याग करनेसे जीवका भी नाश नहीं होता, अर्थात् वह तो अभंग ही रहता है। ___इस कथनद्वारा जीवको देहसे भिन्न सिद्ध किया है। बहुतसे लोग ऐसा मानते हैं और कहते हैं कि देह और जीवकी भिन्नता नहीं है, और देहका नाश होनेसे जीवका भी नाश हो जाता है, उनका यह कथन केवल विकल्परूप है, प्रमाणभूत नहीं; कारण कि वे काँचलीके नाशसे सर्पका भी नाश होना समझते हैं । और यह बात तो प्रत्यक्ष ही है कि काँचलाक त्यागसे सर्पका नाश नहीं होता । यही बात जीवके लिये भी समझनी चाहिये। देह जीवकी काँचलीमात्र है । जबतक काँचली सर्पके साथ लगी हुई है, तबतक जैसे जैसे सर्प
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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