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________________ ९ स्वरोदयशान] विविध पत्र आदि संग्रहः-१९वाँ वर्ष १२७ गया हो तो 'चरणकरणानुयोग' का विचारना योग्य है; कषायी हो गया हो तो 'धर्मकथानुयोग' का विचारना योग्य है; और जड़ हो गया तो 'गणितानुयोग' का विचार करना योग्य है। ९ कोई भी काम हो उस कामकी निराशाकी इच्छा करना; फिर अन्तमें जितनी सिद्धि हो उतना ही लाभ हुआ समझो; ऐसे करनेसे संतोषी रह सकते हैं। १० यदि पृथ्वीसंबंधी क्लेश हो तो ऐसा समझना कि वह साथमें आनेवाली नहीं; उलटा मैं ही उसे अपनी देहको देकर चला जाऊँगा; तथा वह कुछ मूल्यवान भी नहीं है । यदि स्त्रीसंबंधी क्लेश, शंका, और भाव हो तो यह समझकर अन्य भोक्ताओंके प्रति हँसना कि अरे ! तू मल-मूत्रकी खानमें मोहित हो गया (जिस वस्तुका हम नित्य त्याग करते हैं उसमें)! यदि धनसंबंधी निराशा अथवा क्लेश हो तो धनको भी ऊँचे प्रकारकी एक कँकर समझकर संतोष रखना; तो तू क्रमसे निस्पृही हो सकेगा। ११ तू उस बोधको पा कि जिससे तुझे समाधिमरणकी प्राप्ति हो । १२ यदि एक बार समाधिमरण हो गया तो सर्व कालका असमाधिमरण दूर हो जायगा । १३ सर्वोत्तम पद सर्वत्यागीका ही है। स्वरोदयज्ञान बम्बई, कार्तिक १९४३ यह ‘स्वरोदयज्ञान ' ग्रंथ पढ़नेवालेके करकमलोंमें रखते हुए इस विषयमें कुछ प्रस्तावना लिखनेकी ज़रुरत है, ऐसा समझकर मैं यह प्रवृत्ति कर रहा हूँ। हम देख सकते हैं कि स्वरोदयज्ञानकी भाषा आधी हिन्दी और आधी गुजराती है। उसके कर्ता एक आत्मानुभवी मनुष्य थे; परन्तु उन्होंने गुजराती और हिन्दी इन दोनोंमें से किसी भी भाषाको नियमपूर्वक पढ़ा हो, ऐसा कुछ भी मालूम नहीं होता। इससे इनकी आत्मशक्ति अथवा योगदशामें कोई बाधा नहीं आती; और इनकी भाषाशास्त्री होनेकी भी कोई इच्छा न थी, इसलिये इन्हें अपने आपको जो कुछ अनुभवगम्य हुआ, उसमेंका लोगोंको मर्यादापूर्वक कुछ उपदेश देनेकी जिज्ञासासे ही इस ग्रंथकी उत्पत्ति हुई है, और ऐसा होनेके कारण ही इस ग्रंथमें भाषा अथवा छंदकी टीपटाप अथवा युक्तिप्रयुक्तिका आधिक्य देखने में नहीं आता। जगत् जब अनादि अनंत है, तो फिर उसकी विचित्रताकी ओर क्या विस्मय करें । आज कदाचित् जड़वादके लिये जो संशोधन चल रहा है वह आत्मवादको उड़ा देनेका प्रयत्न है, परन्तु ऐसे भी अनंतकाल आये हैं जब कि आत्मवादका प्राधान्य था, इसी तरह कभी जड़वादका भी प्राधान्य था । तत्त्वज्ञानी लोग इसके कारण किसी विचारों पर नहीं जाते, क्योंकि जगत्की ऐसी ही स्थिति है। फिर विकल्पोंद्वारा आत्माको क्यों दुखाना? परन्तु सब वासनाओंका त्याग करनेके बाद जिस वस्तुका अनुभव हुआ, वह क्या वस्तु है, अर्थात् अपना और पराया क्या है ! यदि इस प्रश्नके उत्तरमें इस बातका निर्णय किया कि अपना अपना ही है और पराया पराया ही है तो इसके बाद तो भेदवृत्ति रही नहीं। फल यह हुआ कि
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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