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________________ श्रीमद राजचन्द्र ... [लोकस्वरूपभावना प्राण लिये । एक समय अपने साथी डाकुओंको लेकर उसने एक महानगरको लूटा । दृढप्रहारी एक विपके घर बैठा था । उस विपके यहाँ बहुत प्रेमभावसे क्षीर-भोजन बनाया गया था। उस क्षीर-भोजनके भाजनसे उस विप्रके लोलुपी बालक चिपट रहे थे। हदप्रहारी उस भोजनको छूने लगा। ब्राह्मणीने कहा, हे मूर्खराज ! इसे क्यों छूता है। यह फिर हमारे काममें नहीं आवेगा, तू इतना भी नहीं समशता । दृढप्रहारीको इन बचनोंसे प्रचंड क्रोध आ गया, और उसने उस दीन स्त्रीको मार डाला। नहाते नहाते ब्राह्मण सहायताके लिये दौड़ा आया, उसने उसे भी परभवको पहुँचाया । इतनेमें' घरमेंसे एक दौड़ती हुई गाय आयी और वह अपने सींगोंसे दृढप्रहारीको मारने लगी। उस महादुष्टने उसे भी कालके सुपुर्द की । उसी समय इस गायके पेटमेंसे एक बछवा निकलकर नीचे पड़ा । उसे तड़फता देख दृढ़प्रहारीके मनमें बहुत बड़ा पश्चात्ताप हुआ। मुझे धिक्कार है कि मैंने महाघोर हिंसाएँ कर डाली ! अपने इस पापसे मेरा कब छुटकारा होगा! सचमुच आत्म-कल्याणके साधन करनेमें ही श्रेय है। ऐसी उत्तम भावनासे उसने पंचमुष्टि केशलोंच किया। वह नगरीके किसी मुहल्लेमें आकर उग्र कायोत्सर्गसे अवस्थित हो गया । दृढ़प्रहारी पहिले इस समस्त नगरको संतापका कारण हुआ था, इस कारण लोगोंने इसे अनेक तरहसे संताप देना आरंभ किया । आते जाते हुए लोगोंके धूल-मिट्टी और ईट पत्थरके फेंकनेसे और तलवारकी मूठसे मारनेसे उसे अत्यन्त संताप हुआ। वहाँ लोगोंने डेढ़ महिनेतक उसका अपमान किया । बादमें जब लोग थक गये तो उन्होंने उसे छोड़ दिया। दाहारी वहाँसे कायोत्सर्गका पालनकर दूसरे मुहल्ले में ऐसे ही उन कायोत्सर्गमें अवस्थित हो गया। उस दिशाके लोगोंने भी उसका इसी तरह अपमान किया। उन्होंने भी उसे डेढ़ महीने तंग करके छोड़ दिया । यहाँसे कायोत्सर्गका पालनकर दृढ़प्रहारी तीसरे मुहल्ले में गया। वहाँके लोगोंने भी उसका इसी तरह महाअपमान किया । वहाँसे डेढ़ महीने बाद वह चौथे मुहल्लेमें डेढ़ मासतक रहा । वहाँ अनेक प्रकारके परिषहोंको सहनकर वह क्षमामें लीन रहा । छठे मासमें अनंत कर्म-समुदायको जलाकर अत्यन्त शुद्ध होते होते वह कर्मरहित हो गया। उसने सब प्रकारके ममत्वका त्याग किया। वह अनुपम कैवल्यज्ञान पाकर मुक्तिके अनंत सुखानंदसे युक्त हुआ। यह निर्जराभावना छ हुई। अब दशमचित्र लोकस्वरूपभावना लोकस्वरूपभावना:-इस भावनाका स्वरूप यहाँ संक्षेपमें कहना है। यदि पुरुष दो हाथ कमरपर रखकर पैरोंको चौड़े करके खड़ा हो तो वैसा ही लोकनाल अथवा लोकका स्वरूप जानना चाहिये । वह लोक स्वरूप तिरछे थालके आकारका है, अथवा खड़े मृदंगके समान है। लोकके नीचे भुवनपति, व्यंतर, और सात नरक हैं; मध्य भागमें, अढाई द्वीप हैं। ऊपर बारह देवलोक, नव प्रैवेयक, पाँच अनुत्तर विमान और उनके ऊपर अनंत सुखमय पवित्र सिद्धगतिकी पड़ोसी सिद्धशिला है। यह लोकालोक प्रकाशक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और निरुपम केवलज्ञानियोंने कहा है। संक्षेपमें लोकवरूप भावनाको कहा। . इस दर्शनमें पाप-प्रनालिकाको रोकनेके लिये आश्रवभावना और संवरभावना, तप महाफलको लिये निर्जराभावना, और बोक्खरूपके कुछ तत्वोंके जाननेके लिये लोकस्वरूपभावनायें इन चार चित्रों में पूर्ण है। .. दाम चित्र समाप्त
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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