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________________ ११९ निर्जराभावना] भावनाबोध संवरभावना-द्वितीय दृष्टांत श्रीवज्रस्वामी श्रीवास्वामी कंचन-कामिनीके द्रव्य-भावसे सम्पूर्णतया परित्यागी थे। किसी श्रीमंतकी रुक्मिणी नामकी मनोहारिणी पुत्री वज्रस्वाकि उत्तम उपदेशको श्रवण करके उनपर मोहित हो गई। उसने घर आकर माता पितासे कहा कि यदि मैं इस देहसे किसीको पति बनाऊँ तो केवल वज्रस्वामीको ही बनाऊँगी ! किसी दूसरेके साथ संलग्न न होनेकी मेरी प्रतिज्ञा है। रुक्मिणीको उसके माता पिताने बहुत कुछ समझाया, और कहा कि पगली ! विचार तो सही कि कहीं मुनिराज भी विवाह करते हैं ! इन्होंने तो आश्रव-द्वारकी सत्य प्रतिज्ञा ग्रहण की है, तो भी रुक्मिणीने न माना । निरुपाय होकर धनावा सेठने बहुतसा द्रव्य और सुरूपा रुक्मिणीको साथमें लिया, और जहाँ वज्रस्वामी विराजते थे, वहाँ आकर उनसे कहा कि इस लक्ष्मीका आप यथारुचि उपयोग करें, इसे वैभव-विलासमें काममें लें और इस मेरी महासुकोमला रुक्मिणी पुत्रीसे पाणिग्रहण करें । ऐसा कहकर वह अपने घर चला आया। यौवन-सागरमें तैरती हुई रूपकी राशि रुक्मिणीने वज्रस्वामीको अनेक प्रकारसे भोगोंका उपदेश दिया; अनेक प्रकारसे भोगके सुखोंका वर्णन किया; मनमोहक हावभाव तथा अनेक प्रकारके चलायमान करनेवाले बहुतसे उपाय किये; परन्तु वे सब वृथा गये । महासुंदरी रुक्मिणी अपने मोह-कटाक्षमें निष्फल हुई । उग्रचरित्र विजयमान वज्रस्वामी मेरुकी तरह अचल और अडोल रहे। रुक्मिणीके मन, वचन और तनके सब उपदेशों और हावभावसे वे लेशमात्र भी नहीं पिघले । ऐसी महाविशाल दृढ़ता देखकर रुक्मिणी समझ गई, और उसने निश्चय किया कि ये समर्थ जितेन्द्रिय महात्मा कभी भी चलायमान होनेवाले नहीं । लोहे और पत्थरका पिघलाना सुलभ है, परन्तु इस महापवित्र साधु वज्रस्वामीको पिघलानेकी आशा निरर्थक ही है, और वह अधोगतिका कारण है । ऐसे विचार कर उस रुक्मिणीने अपने पिताकी दी हुई लक्ष्मीको शुभ क्षेत्रमें लगाकर चारित्रको ग्रहण किया; मन, वचन और कायाको अनेक प्रकारसे दमन करके आत्म-कल्याणकी साधना की, इसे तत्त्वज्ञानी सम्वरभावना कहते हैं। इस प्रकार अष्टम चित्रमें संवरभावना समाप्त हुई। नवम चित्र निर्जराभावना बारह प्रकारके तपसे कर्मोके समूहको जलाकर भस्मीभूत कर डालनेका नाम निर्जराभावना है। बारह प्रकारके तपमें छह प्रकारका बाह्य और छह प्रकारका अभ्यंतर तप है । अनशन, ऊणोदरी वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, कायक्लेश और संलीनता ये छह बाह्य तप हैं ।.प्रायश्चित्त, विनय, वैयावच्च, शास्त्रपठन, ध्यान, और कायोत्सर्ग ये छह अभ्यंतर तप हैं । निर्जरा दो प्रकारकी है—एक अकाम निर्जरा और दूसरी सकाम निर्जरा । निर्जराभावनापर हम एक विप्र-पुत्रका दृष्टांत कहते हैं । दृढपहारी किसी ब्राह्मणने अपने पुत्रको सप्तव्यसनका भक्त जानकर अपने घरसे निकाल दिया । वह वहाँसे निकल पड़ा, और जाकर चारोंकी मंडलीमें जा मिला । उस मंडलीके अगुआने उसे अपने काममें पराक्रमी देखकर उसे अपना पुत्र बनाकर रक्खा । यह विप्रपुत्र दुष्टोंके दमन करने में ढप्रहारी सिद्ध हुआ, इसके ऊपरसे इसका उपनाम हटाहारी पड़ा । यह दृढप्रहारी चोरोंका अगुआ हो गया, और नगर और ग्रामोंके नाश करनेमें प्रबल छातीवाला सिद्ध हुआ। उसने बहुतसे प्राणियोंके
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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