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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [तत्वावबोध ८५ तत्त्वावबोध (४) जो श्रमणोपासक नवतत्त्वको पढ़ना भी नहीं जानते उन्हें उसे अवश्य जानना चाहिये । जाननेके बाद बहुत मनन करना चाहिये । जितना समझमें आ सके, उतने गंभीर आशयको गुरुगम्यतासे सद्भावसे समझना चाहिये । इससे आत्म-ज्ञानकी उज्ज्वलता होगी, और यमनियम आदिका बहुत पालन होगा। नवतत्त्वका अभिप्राय नवतत्त्व नामकी किसी सामान्य लिखी हुई पुस्तकसे नहीं। परन्तु जिस जिस स्थल पर जिन जिन विचारोंको ज्ञानियोंने प्रणीत किया है, वे सब विचार नवतत्त्वमेंके किसी न किसी एक, दो अथवा विशेष तत्त्वोंके होते हैं। केवली भगवान्ने इन श्रेणियोंसे सकल जगतमंडल दिखा दिया है। इससे जैसे जैसे नय आदिके भेदसे इस तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होगी वैसे वैसे अपूर्व आनन्द और निर्मलताकी प्राप्ति होगी। केवल विवेक, गुरुगम्यता और अप्रमादकी आवश्यकता है । यह नव तत्त्वशान मुझे बहुत प्रिय है । इसके रसानुभवी भी मुझे सदैव प्रिय हैं। __ कालभेदसे इस समय सिर्फ मति और श्रुत ये दो ज्ञान भरतक्षेत्रमें विद्यमान हैं, बाकीके तीन ज्ञान व्यवच्छेद हो गये हैं। तो भी ज्यों ज्यों पूर्ण श्रद्धासहित भावसे हम इस नवतत्त्वज्ञानके विचारोंकी गुफामें उतरते जाते हैं त्यों त्यों उसके भीतर अद्भुत आत्मप्रकाश, आनंद, समर्थ तत्त्वज्ञानकी स्फुरणा, उत्तम विनोद, गंभीर चमक और आश्चर्यचकित करनेवाले शुद्ध सम्यग्ज्ञानके विचारोंका बहुत अधिक उदय करते हैं । स्याद्वादवचनामृतके अनंत सुंदर आशयोंके समझनेकी शक्तिके इस कालमें इस क्षेत्रसे विच्छेद होनेपर भी उसके संबंधमें जो जो सुंदर आशय समझमें आते हैं, वे आशय अत्यन्त ही गंभीर तत्त्वोंसे भरे हुए हैं । यदि इन आशयोंको पुनः पुनः मनन किया जाय तो ये आशय चार्वाक-मतिके चंचल मनुष्यों को भी सद्धर्ममें स्थिर कर देनेवाले हैं । सारांश यह है कि संक्षेपमें, सब प्रकारकी सिद्धि, पवित्रता, महाशील, सक्ष्म और गंभीर निर्मल विचार, स्वच्छ वैराग्यकी भेट, ये सब तत्त्वज्ञानसे मिलते हैं। ८६ तत्त्वावबोध एकबार एक समर्थ विद्वान्के साथ निम्रन्थ प्रवचनकी चमत्कृतिके संबंधमें बातचीत हुई । इस संबंधमें उस विद्वान्ने कहा कि इतना मैं मानता हूँ कि महावीर एक समर्थ तत्त्वज्ञानी पुरुष थे, उन्होंने जो उपदेश किया है उसे ग्रहण करके प्रज्ञावंत पुरुषोंने अंग उपांगकी योजना की है। उनके जो विचार हैं वे चमत्कृतिसे पूर्ण हैं, परन्तु इसके ऊपरसे इसमें लोकालोकका सब ज्ञान आ जाता है, यह मैं नहीं कह सकता । ऐसा होनेपर भी यदि आप इस संबंधमें कुछ प्रमाण देतें हों तो मैं इस बातपर कुछ श्रद्धा कर सकता हूँ। इसके उत्तरमें मैंने यह कहा कि मैं कुछ जैनवचनामृतको यथार्थ ते क्या, परन्तु विशेष भेद सहित भी नहीं जानता; परन्तु जो कुछ सामान्यरूपसे जानता हूँ, इसके ऊपरस भी प्रमाण अवश्य दे सकता हूँ। बादमें नव-तत्त्वविज्ञानके संबंधमें बातचीत चली । मैंने कहा
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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