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________________ तत्त्वावबोध] मोक्षमाला सूक्ष्म द्वादशांगी ज्ञान भी इस नवतत्त्व स्वरूप ज्ञानका सहायरूप है, यह भिन्न भिन्न प्रकारसे इस नवतत्त्व स्वरूप ज्ञानका उपदेश करता है । इस कारण यह निःशंकरूपसे मानना चाहिये कि जिसने अनंत भावभेदसे नवतत्त्वको जान लिया वह सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो गया। ___ यह नवतत्त्व त्रिपदीकी अपेक्षासे घटाना चाहिये । हेय, ज्ञेय और उपादेय अर्थात् त्याग करने योग्य, जानने योग्य, और ग्रहण करने योग्य, ये तीन भेद नवतत्त्व स्वरूपके विचारमं अन्तर्हित हैं। प्रश्न—जो त्यागने योग्य है उसे जानकर हम क्या करेंगे ! जिस गाँवमें जाना नहीं है उसका मार्ग पूँछनेसे क्या प्रयोजन ! उत्तर-तुम्हारी इस शंकाका सहजमें ही समाधान हो सकता है। त्यागने योग्यको भी जानना आवश्यक है। सर्वज्ञ भी सब प्रकारके प्रपंचोंको जान रहे हैं। त्यागने योग्य वस्तुको जाननेका मूल तत्त्व यह है कि यदि उसे न जाना हो तो कभी अत्याज्य समझकर उस वस्तुका सेवन न हो जाय । एक गाँवसे दूसरे गाँवमें पहुँचनेतक रास्तेमें जो जो गाँव आते हों उनका रास्ता भी पूंछना पड़ता है । नहीं तो इष्ट स्थानपर नहीं पहुँच सकते । जैसे उस गाँवके पूंछनेपर भी उसमें ठहरते नहीं हैं, उसी तरह पाप आदि तत्त्वोंको जानना चाहिये किन्तु उन्हें ग्रहण नहीं करना चाहिये । जिस प्रकार रास्तेमें आनेवाले गाँवोंको छोड़ते जाते हैं, उसी तरह उनका भी त्याग करना आवश्यक है । ८४ तत्त्वावबोध (३) नवतत्त्वका कालभेदसे जो सत्पुरुष गुरुके पाससे श्रवण, मनन और निदिध्यासनपूर्वक ज्ञान प्राप्त करते हैं, वे सत्पुरुष महापुण्यशाली और धन्यवादके पात्र हैं। प्रत्येक सुज्ञ पुरुषोंको मेरा विनयभावभूषित यही उपदेश है कि नवतत्त्वको अपनी बुद्धि-अनुसार यथार्थ जानना चाहिये । ___महावीर भगवान्के शासनमें बहुतसे मतमतांतर पड़ गये हैं, उसका मुख्य कारण यही है कि तत्त्वज्ञानकी ओरसे उपासक-वर्गका लक्ष फिर गया। वे लोग केवल क्रियाभावमें ही लगे रहे, जिसका परिणाम दृष्टिगोचर है। वर्तमान खोजमें आयी हुई पृथिवीकी आबादी लगभग डेढ़ अरबकी गिनी जाती है; उसमें सब गच्छोंको मिलाकर जैन लोग केवल बीस लाख हैं । ये लोग श्रमणोपासक हैं। इनमेंसे मैं अनुमान करता हूँ कि दो हज़ार पुरुष भी मुश्किलसे नवतत्त्वको पढ़ना जानते होंगे । मनन और विचारपूर्वक जाननेवाले पुरुष तो उँगलियोंपर गिनने लायक भी न होंगे । तत्त्वज्ञानकी जब ऐसी पतित स्थिति हो गई है, तभी मतमतांपर बढ़ गये हैं । एक कहावत है कि "सौ स्याने एक मत," इसी तरह अनेक तत्त्वविचारक पुरुषोंके मतमें बहुधा भिन्नता नहीं आती, इसलिये तत्त्वावबोध परम आवश्यक है। ___ इस नवतत्व-विचारके संबंधमें प्रत्येक मुनियोंसे मेरी विज्ञप्ति है कि वे विवेक और गुरुगम्यतासे इसके ज्ञानकी विशेषरूपसे वृद्धि करें, इससे उनके पवित्र पाँच महाव्रत दृढ़ होंगे, जिनेश्वरके वचनामृतके अनुपम आनन्दकी प्रसादी मिलेगी, मुनित्व-आचार पालने में सरल हो जायगा; ज्ञान और क्रियाके विशुद्ध रहनेसे सम्यक्त्वका उदय होगा; और परिणाममें संसारका अंत होगा।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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